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________________ 685 686 A. B. C. 687 688 (ब) तीर्थकर वीतरागी तपस्या से ही भवघट तिरते हैं । पुरुषार्थवान तपस्वी अपनी मर्यादाऐं बांधकर ही वीतरागी तप तपता है । भवचक्र से पार होने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने रत्नत्रय की शरण में अपनी अंतहीन गठान को छोटा बनाने का वातावरण वीतरागी तप से बनाया । अष्टकर्मों से प्राप्त चार गतियों में घूमते सल्लेखी ने महामत्स्य की तरह उत्तम संहनन पाकर हर उत्सर्पिणी अवसर्पिर्णी काल में उन्हीं अष्ट कर्मों से उपजी चार गतियों को छत्रधारी राजा की तरह भी भोगा । अष्ट कर्मों से उपजी उन्हीं चार गतियों को मरते हुए सल्लेखी ने रत्नत्रय से भी झेलकर अंत में वीतरागी तपस्या की। भवचक्र से पार होने दो धर्म ध्यानों का स्वामी सप्त तत्त्व का चिंतन करते पंचम गति को पाने की भावना करके वीतरागी तपस्या करता है । भवचक्र से पार होने (कुलभूषण देशभूषण युगल मुनियों की तरह) भव-भव में वीतरागी पुरुषार्थ करना पड़ता है। अष्टकर्मों से उपजी चार गतियों को पार करने के लिए सल्लेखी ने पुरुषार्थ किया । पंचमगति पाने उठते गिरते पुरुषार्थ से दो धर्मध्यानों के स्वामी छत्रधारी राजा और रानी भी वीतरागी तपस्वी बनकर महाव्रत धारते हैं । 695 स्थानोन्नति का आधार सप्त तत्त्व चिंतन और वीतरागी तपस्या है । 696 - (अ) सिद्धआत्मा की शरण में रत्नत्रयी तपस्वी पुरुषार्थ से और पक्षी अपुरुषार्थ से रहते हुए भी वीतरागी तपस्या तपते हैं। (ब) चतुर्गति वाला वातावरण प्रदर्शित है । चार शुक्लध्यानों की प्राप्ति पंचाचार और बारह भावना से / दो शुक्लध्यानों तक वीतरागी तपस्या से होती है। चार शुक्लध्यानों को चतुर्विधी, चार अनुयोगी वीतरागी तपस्वी साधु ही प्राप्त करते हैं । रत्नत्रयी वीतरागी तपस्वी तीसरे धर्म ध्यान से ही अपने रत्नत्रय को संभालता है । दो धर्मध्यानों का स्वामी स्वसंयमी तपस्वी अथवा आर्यिका केवलज्ञान के भावी अरहंत पद की प्राप्ति करने की इच्छा रखते हैं। 689 690 691 692 693 694 697 698 699 पुरुषार्थ घटाते बढ़ाते वीतरागी तपस्वी ने स्त्री और महामत्स्य पर्यायें धारण करते लंबे उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल में अष्टकर्म जनित चार गतियों में भ्रमण करते वीतरागी तपस्या अंततः धारी । 700 तीर्थंकर प्रकृति कर्म बांधना वीतरागी तपस्वी पुरुष के लिए इष्ट है । मनुष्य ने कर्माजन करते अनादि काल से अपनी पर्यायें कर्मफल चेतना के आधीन आत्मस्थ तपस्वी होकर भी भोगी हैं। और दस से चौदह भवी भव्यता पाई है, किन्तु रत्नत्रय साधने पर तपस्वी बन आदिनाथ ने तप किया तब भरत उनकी पूजन को पहुँचे। उनके साथ वृषभ भी था जहाँ पहले से ही अन्य तपस्वी (सात) वीतरागी तप तप रहे थे। तीन सिरों का पशु एक क्षेत्रपाल देव है। भवघट से तिरने तीर्थकर प्रकृतिवान ने दो धर्मध्यानों सहित नदी तट पर वीतराग तप किया । (अ) दो शुक्लध्यानी रत्नत्रयी तपस्वी आत्मस्थ वीतरागी तप करके सिद्धत्व की इच्छा करने वाला ऐसा आरंभी गृहस्थ है जो वीतराग तपस्यारत है । Jain Education International 117 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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