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657- लोकपूरण करने वाले क्षपक का वातावरण दिगंबर तपस्वी का दो धर्मध्यानों से प्रारंभ होकर तीसरे शुक्लध्यान तक
का चतुराधन से ही प्राप्त होता है । 659- चार शुक्लध्यानों के लिए पुरुषार्थमय वीतरागी तप चाहिए । 660- भवघट से पार तिरने दो धर्म-ध्यानों के स्वामी को संघाचार्य की शरण में रत्नत्रय धारण करके अपने वातावरण को सुरक्षित
बनाने वाला गृहस्थ बनना चाहिए । 661- पंचमगति की भावना करने वाले को आत्मस्थता और पुरुषार्थी क्षेत्रीय (सीमाओं में बंधकर ) देशावकाशिक व्रती होना
चाहिए । 662- तद्भवी मोक्षार्थी साघक रत्नत्रयी वातावरण संभाले तीर्थकर प्रकृति बांधता है । 663- पंचमगति का गुणस्थानोन्नति इच्छुक व्यक्ति तीन धर्मध्यानों से उठकर रत्नत्रयी वीतरागी वातावरण बनाता है । 664- पंचमगति भावी पुरुषार्थी, निश्चय व्यवहारधर्मी वातावरण को सल्लेखना युत बनाकर वीतरागी तपस्या करता है । 665- अदम्य पुरुषार्थी, सिद्धत्व के लिए संघ में जाकर गृह त्याग, निश्चय व्यवहार धर्मी वीतराग तप की शरण लेता है । 666- स्वसंयमी, रत्नत्रय धारकर दो शुक्ल ध्यानों की प्राप्ति के लिए सल्लेखना धारणकर वीतरागी तपस्या करता है । 667- दो धर्मध्यानों के स्वामी भी तप की साधना हेतु अणुव्रती बनकर सल्लेखना ले, पंचमगति की भावना भाते हैं। 668- चतुर्गति भ्रमण नाशन । 669- खण्डित। 670- पशु । 671- निकट भव्य जीव वीतरागी तपस्या ही धारता है । 674- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानी अपने वातावरण को समतामय बनाकर रत्नत्रय का ध्यान रखकर पंच परमेष्ठी की
आराधना और स्वसंयम धारता है । 675- दो धर्मध्यानों के स्वामी (यक्ष) विद्याधर ने पंच परमेष्ठी की आराधना बाधा सहित करते हुए भी भवचक्र से पार होने हेतु
तीन दुानों को छोड़ छत्रधारी अरहंत सम्मुख साधक बन और फिर स्वसंयम से इच्छा निरोध करते हुए क्रमोन्नति की। 676- तपस्वी, अष्टकर्मजन्य चतुर्गति भ्रमण से पार होने के लिए वीतरागी तपस्या करता है । 677- भवघट से पार उतरने दो धर्मध्यानों का स्वामी तपस्या हेतु ग्यारह प्रतिमाओं के धारण का पुरुषार्थ करता है । 678- सल्लेखी निश्चय व्यवहार धर्मी संघाचार्य है। 679- संघस्थ सामान्य श्रावक और साधु श्रावक, भवघट से पार उतरने दो धर्म ध्यानों से ही बारह भावनाएं भाकर वीतरागी तपस्या
में रत हुए । 680- भवघट से पार उतरने दो धर्म ध्यानी चतुर्थ गुणस्थानी श्रावक, क्रमशः गुणोन्नति करता हुआ शिखर तीर्थ पर जाकर
वीतरागी दिगम्बरी तप करने लगा । 681- निकट भव्य को भव बाधा आने पर उसने वीतरागी तप धारण हेतु षट् आवश्यक करते हुए तपस्या प्रारंभ की । 682- चतुर्गति में भटकता निश्चय व्यवहारी जीव भी कभी भवघट में आत्मस्थ हो जाता है ।। 684- भवचक्र से पार होने दो धर्म ध्यानों के स्वामी बंधुओं ने अंततः निकट भव्यता प्राप्त करके रत्नत्रय धारते हुए गृह त्यागा
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