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________________ 642 संघाचार्य की शरण ली। 636- (अ) भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने पंच परमेष्ठी की आराधना करते रत्नत्रय को धारण किया । (ब) आत्मस्थ तपस्वी ने दो धर्म ध्यानों से पंच परमेष्ठी की आराधना की । 638- पंचमगति का साधक पुरुषार्थी स्वसंयमी होता है । 639- अरहंत पद की प्राप्ति चार अनुयोगी निश्चय व्यवहार धर्मी तपस्वी दिगंबराचार्य कर सकते हैं । 640- रत्नत्रयी वातावरण ही पुण्यकारी वीतरागी तपस्या का वातावरण होता है । 641- पंचमगति के लिए सचेलक ने तप किया और आगे चलकर वीतरागी मुनि हुआ। पूर्व में वह देव था। भवघट से तिरने दो धर्म ध्यान से तीसरे शुक्लध्यान तक की रत्नत्रयी यात्रा चाहिए । 643- उपशमी तपस्वी वीतरागी तपस्या में आत्मस्थता सहित दो धर्मध्यानों का पुरुषार्थी, छत्रधारी, समतावान होने से उत्तरोत्तर पुरुषार्थ करता वीतरागी तपस्या करता था। 644- सल्लेखी पुरुषार्थी वैय्यावृत्ति का झूला पाकर अपने वीतरागी तप को उन्नत करता है । 645- दो धर्मध्यानों वाले स्वसंयमी तपस्वी ने चारों कषाएँ तजकर तपस्या की । 646- दो धर्मध्यानों को दूसरे शुक्लध्यान तक पहुंचाने में तपस्वी उपशम द्वारा वीतरागी तपस्या तपता है । 647- भवघट से तिरने दो धर्म-ध्यानों सहित एक सचेलक ने चतुराधन किया और (भवान्तर) कालान्तर में क्रमोन्नति से रत्नत्रयधारी मुनि बनकर जंबूद्वीप के निश्चय व्यवहार धर्म का श्रमण बना । हृदय में दो धर्मध्यानों से उठकर चार शुभ-ध्यान लाने वाले पंचाचारी साधु पूर्व में गृहस्थ ही थे। 649- चार गतियों के परिभ्रमण से निकलना अत्यंत कठिन है । वनस्पति भी आत्मस्थता धारण कर सकती है, अर्ध वैराग्यमय वातावरण में नदी के किनारे वाले स्थान में. जो कालांतर में तपस्वियों की धर्मस्थली ही उनके तप हेतु बन जाता है । 651- भवचक्र से पार उतरने संघस्थ सभी वर्ग के तपस्वियों ने षट् आवश्यक पालते हुए निकट भव्यता प्राप्त करके भवभ्रमण को छोटा किया । 652- निकट भव्य जन गुणस्थानोन्नति करते हैं। 653- भवघट से पार उतरने दो धर्म-ध्यानों के स्वामी ने पुरुषार्थी बनकर उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए सल्लेखना ली और अपने निश्चय व्यवहार धर्मी वातावरण को वीतरागी तपस्या में बदला । जिस तरह स्वसंयमी ने अदम्य पुरुषार्थ को बढ़ाते हुए स्वसंयम से इच्छा निरोध करते हुए घातिया चतुष्क का नाश किया और भवघट से पार उतरे उसी प्रकार दो धर्म-ध्यानों के स्वामी छत्रधारी राजा ने अरहंत की शरण ले. राज छोड़कर आत्मस्थ होते हुए निश्चय-व्यवहार धर्मी आरंभी गृहस्थ की स्थिति से ही पंच परमेष्ठी की आराधना करके अपने कर्मों का नाश करने वीतरागी तपस्या स्वीकारी । 655- रत्नत्रयी जंबूद्वीप में समताधी स्वसंयमी ने आरंभी गृहस्थ की स्थिति से उठकर तीन धर्म-ध्यानों के सहारे निश्चय व्यवहार धर्म की शरण लेकर आत्मस्थता से सिद्धमय प्रभु में लीन हुए और वीतरागी तपस्या की । 656- पुरुषार्थमय पंचाचार द्वारा ही भवधट से तीर्थकर पार हुए हैं । 648- हृदय में दो 650 115 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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