SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 613 अदम्य पुरुषार्थी ने सल्लेखी बन आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी करते चारों कषायों को त्याग पंचमगति पाई । 612 वैय्यावृत्ति पाने वाला हर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में चतुर्गति नाशन हेतु गुणस्थानोन्नति करता वीतरागी तपस्वी निश्चय व्यवहार धर्म की शरणागत ऐलक, दो शुभ ध्यानी तपस्वी, केवली स्वसंयमी ही होता है । पुरुषार्थी ने रत्नत्रयी चतुराधन करते दो धर्मध्यानों से आरंभ हो दूसरे शुक्लध्यान वाले उद्यम से भवघट तिरा । दिगंबर वीतरागी तपस्वी ने तीनों (मन, वचन, काय) आत्मस्थताऐं करके रत्नत्रयी केवलियों के संघ में शरण लेकर अरहंत पद की साधना की । तीर्थंकरत्व हेतु सल्लेखी अदम्य पुरुषार्थी तपस्वी आरंभी गृहस्थ होते हुए तीन धर्म ध्यानों के साथ गृह त्यागकर क्रम से दो शुक्लध्यानों का स्वामी बना । भवघट से तिरने दो धर्मध्यानी रत्नत्रयी श्रावक ने संघ के समीप प्रतिमाऐं धारण कर वीतरागी तपस्या प्रारंभ की । दो शुक्लध्यानों के लिए तीन धर्म ध्यानों से उठकर अरहंत पद की प्राप्ति (पंचाचारी को अरहंत पद प्राप्ति संभव ) वीतरागी तपस्या निश्चय और व्यवहार धर्मी दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति व्दारा अरहंत अवस्था से प्राप्त होती है । अरहंत पद का पुरुषार्थ रत्नत्रयी पुरुषार्थी तीर्थंकर के पादमूल में वीतरागी तपस्या को आत्मस्थता से धारकर निश्चय व्यवहारी एक आरंभी गृहस्थ होकर भी महाव्रतियों के वातावरण में सल्लेखना धारकर वीतरागी तपस्या से करता है । सिद्धत्व के लिए अदम्य पुरुषार्थ केवली द्वारा स्वसंयमी इच्छा निरोध से ही किया जाता है । भवघट से तिरने के लिए दो शुक्लध्यानों और वीतरागी तपस्या की पंचमगति की साधना आवश्यक होती है । मांगलिक स्वस्तिक जो पंच परावर्तन की पूर्णता दर्शाता है । भवघट से तिरने हेतु सल्लेखना द्वारा तीर्थंकरत्व की प्राप्ति चारों कषायों को त्याग करके रत्नत्रयी तपस्या और सप्त तत्त्व चिंतन सहित आवश्यक होती है। - 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 पंचमगति हेतु अरहंत पद की प्राप्ति दो धर्मध्यानों से आरंभ होकर तीसरे शुक्लध्यान तक रत्नत्रयी साधना द्वारा बनी पुरुषार्थ. पंचाचार और रत्नत्रयी तपश्चरण पुरुषार्थवान के लिए आवश्यक हैं । . आरंभी गृहस्थ भी तद्भवी मोक्ष हेतु भवचक्र से पार होने सल्लेखना धारणकर, निश्चय व्यवहारवान तपस्वी बनता है । सल्लेखी दूसरे शुक्लध्यान वाला वीतरागी तपस्वी है । भवघट से पार होने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने स्वसंयमी बनकर सप्त तत्त्व चिंतन करते हुए वीतरागी तपस्या की । भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी ने युगल बंधुओं की तरह महाव्रत की पिच्छी धारण करके स्वसंयम बढ़ाते हुए वीतरागी तपस्या की । पुरुषार्थी ने निश्चय व्यवहारी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में देय्यावृत्ति पाते. सिद्ध स्मरण करके नदी के किनारे तप करते हुए छत्रधारी होकर भी सचेलक के रूप में वीतरागी तपश्चरण आरंभ किया । घातिया चतुष्क क्षय करने तीन धर्म ध्यानों के स्वामी ने चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में तप किया । एक कछुए की तरह स्वयं के परिणामों की रक्षा करते हुए पुरुषार्थी सीमाओं के भीतर सुरक्षित रहते रत्नत्रयी महाव्रती बने हुए निश्चय व्यवहारी तपस्वी ने वीतरागी तपस्या की । भवघट से तिरने तीर्थंकर प्रकृतिवान सल्लेखी ने तीन धर्मध्यानी तपस्वी बनकर चार अनुयोगी निश्चय व्यवहारधर्मी Jain Education International 114 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy