SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 596- अरहंतमार्ग वैय्यावृत्ति के झूले से साधक वीतरागी तपस्वी को समाधिमरण कराके ग्यारह प्रतिमाएं धारण करा ढाईद्वीप में ही भवान्तरों में रत्नत्रयी वीतरागी तपस्या का अधिकारी बना जाता है । 597- सिद्धत्व की प्राप्ति भवघट में वीतरागी तपस्या और निश्चय-व्यवहार धर्म की प्रभावना से साधक को पंचमगति का अधिकारी बनाती है । पुरुषार्थवान सल्लेखी पंचाचार करते हुए समाधिमरण द्वारा पुरुष भव और तीर्थंकर प्रकृति को बांधकर तपस्या करते हुए अपना पुरुषार्थ बढ़ाकर वीतरागी तपस्वी बनता है । जिन सिंहासन के जिनलिंगी अदम्य पुरुषार्थी वीतरागी तपस्वी बनकर दो भक्तियों के सहारे जीवन को निश्चय-व्यवहारमय बनाते हैं और चतुराधन से तपस्यारत होकर सिद्धत्व के लिए हरकाल में वृत्ति रखते हैं । 600- पंचमकाल का साधक चतुराधक, वीतरागी तपस्वी होता है । पंचमगति का साधक, छत्रधारी पुरुषार्थी तीर्थकर जिन की शरण में जाप द्वारा आत्मस्थ होकर दोनों दुानों को दूर करके पंचमगति हेतु तीन शुक्लध्यानों तक को प्राप्त करते हैं । 602- महाव्रती निश्चय व्यवहारी धर्म का श्रमण होता है । 603- स्वसंयमी का अदम्य पुरुषार्थ औपशमिक गुणस्थानोन्नति कराता प्रथम गुणस्थान से 10 तक उठाता फिर गिराता पुनः उठाता है। उसे युगलश्रृंगों पर जिनशासनलिंगियों की शरण में ले गया जहाँ उसने चतुर्गति भ्रमण को रोककर पंचमगति की राह पाने वाली गुणस्थानोन्नति की । 604- (1) कल्पवृक्ष (2) तपस्वी ने चारों कषायों को त्यागने वाले संघाचार्य की शरण में आकर षट् द्रव्य चिंतन करके पंचमगति की साधना द्वारा अष्टकर्मजन्य चतुर्गति भ्रमण नाशने तीन धर्मध्यानी भूमिका बनायी । (3) षट् द्रव्यों का चिंतन निश्चय-व्यवहार धर्म स्थापित कराता है । अरहंत अवस्था के लिए दो धर्म ध्यानों से उठता तपस्वी निश्चय व्यवहार धर्म का पालन करते हुए वैयावृत्ति का झूला पाता और वीतरागी तप तपता है । 606- नदी के तट पर भी वीतरागी तपस्वी तप तपते हैं । 607- युगल बंधु स्वसंयमी और वीतरागी तपस्वी थे । 608- छत्रधारी राजा ने तप द्वारा ऋद्धियाँ पाकर भी केवलत्व पाया और वीतरागी तपस्या की । 609- बारबार पुरुषार्थ उठाते हुए वीतरागी तपस्वियों ने संघाचार्य की शरण लेकर सल्लेखना करते हुए चतुर्विध संघस्थ सेवा पाई। 610- पंचाचारी दिगंबर जिन भक्त है । 611- सल्लेखी ने निश्चय व्यवहार धर्म की शरण लेकर अष्टकर्म जन्य चतुर्दिक भ्रमण को नाशने के लिए अदम्य पुरुषार्थ से दो शुक्लध्यान प्राप्ति हेतु (कैवल्य) की साधना की। 612- भवघट से तिरने, वीतरागी तपस्या लीन अणुव्रतधारी ने गुणस्थानोन्नति करके रत्नत्रयी धर्मध्यानों से सप्ततत्व चिंतन करते पंचमगति की साधना की । 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy