SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 574- सावधान कछुए की तरह अष्टकर्म नाशन छत्रधारी राजा भी तपस्या करते हुए वीतरागी तपस्या तपने हेतु मुनि व्रताचरण करते हैं। 575- आरंभी गृहस्थ तीन धर्मध्यानी बन स्वसंयम लेकर तप करता है । . 576- भवचक्र से पार उतरने स्वसल्लेखी तपस्वी कायोत्सर्गी आदिप्रभु के चरणो में पुरुषार्थी तपश्चरण करते तपस्वी डायनासर /सरीसृप की तरह वीतराग तप धारते हैं। 577- मन को स्थिर करके तीन धर्मध्यानों का स्वामी चौथे शुक्लध्यान की प्राप्ति हेतु वीतरागी तपस्या करता है। 578- भवचक्र से पार उतरने दो धर्मध्यानों का स्वामी ऐलक /तपस्वी वैय्यावृत्य सहित वीतराग तप करता है। 579 दो शुक्लध्यानों का स्वामी भवघट से पार होने घातिया चतुष्क क्षय करता है । 580- भवघट से तिरने के लिए दो धर्म ध्यानों का स्वामी सल्लेखना को रत्नत्रयी बनाकर वीतरागी तपस्या करता है । 581- युगल स्वसंयमी केवली भगवंतों की शरण ले दो धर्म ध्यानों से लेकर अरहंत अवस्था तक उठने में सल्लेखना लेकर निश्चय व्यवहार धर्म की शरण में साधक पंच परमेष्ठी का आराधन करते वीतरागी तपस्या धार मुनि बन जाता है । 582- आत्मस्थ दोनों बंधुओं ने वीतरागी तपस्या की । 583- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी छत्रधारी राजा भी आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीसरे धर्म ध्यान को पाने निकट भव्यता से गुणस्थानोन्नति करते हैं । 584 केवली पंच जिनेशी (परमेष्ठी) भक्त, बारह भावना भाकर दूसरे धर्म ध्यान से आत्मस्थ तपस्वी बनकर निकट भव्य बन वीतरागी तपस्या करता है । 585- एकदेश तपस्वी चारों कषायें तज तपस्या घर से भी कर सकता है । 586- उल्टा स्वस्तिक अमांगलिक होता है । 587- (अ) अरहंत बनने के लिए तीन धर्म ध्यानों से उठकर निश्चय व्यवहारी चतुर्विध संघाचार्य की शरण में जाना चाहिए। (ब) हमें कला की दृष्टि से यह सील बनावटी प्रतीत होती है। गूदागादी है। 588- मोक्ष /सिद्ध पद की प्राप्ति के लिए तपस्वी स्वसंयमी बनकर दशधर्मों का पालन और अरहंत आराधन करके निकट भव्य बनता है। 589- रत्नत्रयी जंबूद्वीप में आरंभी गृहस्थ तीन धर्मध्यानी भी आत्म संयम करते है । 590- भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी समतावान तपस्वी बनकर स्वसंयम लेता है । 591- भवघट से तिरने रत्नत्रयी साधना और रत्नत्रयी निश्चय व्यवहार धर्म का वातावरण पंचाचारी वीतरागी तपी का है। 592- तपस्वी युगल बंधु निश्चय व्यवहार धर्मी चतुर्विध संघाचार्य के समीप तपस्या रत रहे। 593 - अर्धचकी के पुरुषार्थ से पुरुषार्थी की सल्लेखना डायनासर/सरीसृप जैसे जीव को भी तपस्वी जैसा पुरुषार्थ दिला, दो धर्मध्यानों की स्थिति से तपस्वी को निकट भव्यत्व दिलाकर वीतरागी तपस्वी भवांतर में बनाती है । 594- तीन धर्मध्यानी पंचम गुणस्थानी, तपस्वी संघाचार्य की शरण में, रत्नत्रय पालकर वीतरागी तपस्या के साथ-साथ अपना वैराग्य प्रखर कर लेते हैं । 595- पंचमगति के मोक्षार्थी को, सल्लेखना उसे दूसरे शुक्लध्यान तक संसार से उठाकर तपस्या में दृढ़ कराती है। 112 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy