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________________ 552 भवघट से तिरने वाले दो धर्म ध्यानों से दूसरे शुक्लध्यान में पहुंचने वाले छत्रधारी राजा वीतरागी तपस्वी बनकर त्रिगुप्ति धारण कर पंचमगति का साधन करने सप्त तत्वों का चिंतन करते हैं। 553 वही । 554- चतुर्गतियां । 555- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी निकट भव्य चातुर्मास में तपस्वी जैसे अरहंत भक्ति से अपने अदम्य पुरुषार्थ को उठाते हैं। 556- डायनासर ने तीर्थकर प्रकृति हेतु दो धर्मध्यानों से ही त्रिगुप्ति धारण करके वीतराग वातावरण बनाया । 557- सल्लेखी अणुव्रती वीतरागी तपस्वी है । अदम्य पुरुषार्थ से सल्लेखी आत्मस्थ होकर वीतरागी तपश्चरण धारता है । वह छत्रधारी राजा भी आत्मस्थ होकर तपस्या करता है। 559- पुरुषार्थी पुरुषार्थ बढ़ाते हुए भवचक से पार उतरने दो धर्म ध्यानों से ही चतुर्गति नाशन के उपाय करता है । 560- तीन धर्मध्यानी आत्मस्थ श्रावक चारों अनुयोगों को निश्चय व्यवहार दृष्टि से समझकर नवदेवता श्रद्वान सहित वीतरागी तपस्या धारता है । 562- समाधिमरणी साधक मांगीतुंगी/उदयगिरि खण्डगिरि तीर्थ क्षेत्रों पर जिनलिंगियों की शरण में वीतरागी तप लीन है । 563- त्रिगुप्तिधारी, पंचमगति भावी पुरुषार्थी तपस्वी दो धर्म ध्यानों के स्वामी होकर भी मांगीतुंगी/कुमारी पर्वतों पर जिनलिंगियों की शरण में वीतरागी तपस्या धारता है । 564- सचेलक तपस्वी रत्नत्रय और दशधर्म वाले वातावरण में वीतरागी तपस्या करता पंचम गति का साधन बनाने तीन धर्मध्यानों से पुरुषार्थ उठाकर दूसरे शुक्लध्यान तक उन्नति करता है। तीन धर्म ध्यानों से उठकर मोक्ष जाने हेतु तीसरे शुक्लध्यान तक उन्नति करना पड़ती है । 566- दो धर्मध्यानी आरंभी गृहस्थ एकदेशव्रती तपस्वी सल्लेखना तत्पर रहता है तब कहीं रत्नत्रयी तपस्वी बनकर वह चतुराधक बन, कीर्तिवानी तीसरा शुक्लध्यानी बनता है । 567- भवचक्र से पार उतरने षट् द्रव्य चिंतन तपस्वी को वीतरागी तपश्चरण पथ पर लाकर मुनिपद दिलाता है । 558- अदम्य पुरुषार्थी सल्लेखी आरंभी गृहस्थ तीन धर्म ध्यानी होकर रत्नत्रयी साधना करने तत्पर होता है । 569- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी पुरुषार्थ उठाकर संघशीर्ष बनता रत्नत्रयी निश्चय व्यवहारी धर्मध्यानी चतुर्विध संघाचार्य भी बन सकता है। 570- एकदेश आत्मसंयमी सचेलक/आर्यिका दशधर्म का पालन करते हैं । 571 पुरुषार्थी रत्नत्रयी जंबू में पुरुषार्थी पक्षी भी पंच परमेष्ठी आराधन करते हैं । 572- सिद्धत्व हेतु भवचक्र से पार उतरने दो धर्मध्यानों से भी तीसरे शुक्लध्यान तक की प्राप्ति हेतु रत्नत्रय का पालन आवश्यक होता है । 573- आरंभी गृहस्थ तीसरे धर्मध्यान के वातावरण से कुमारी पर्वतों पर जाकर संघ की शरण लेकर रत्नत्रयमय वीतरागी तपश्चरण करता है। 111 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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