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________________ 535 532- षट् शाश्वत द्रव्यों पर चिंतन करते हुए इस हुण्डा अवसर्पिणी काल में अब सल्लेखी छत्रधारी राजा होकर भी तपस्वी बनकर अरहंत का लक्ष्य रखते हैं । 533- भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों वाला व्यक्ति पंचाचारी बनकर रत्नत्रय पालते हुए वीतरागी तपश्चरण करता है। 534- एकदेश स्वसंयमी रत्नत्रयी तपस्वी वीतरागी तपश्चरण रत होता है । शिखरतीर्थ पर अष्टकर्म प्रभावी चतुर्गतिक भ्रमण काटने मोक्षार्थी सल्लेखना धारते निश्चय व्यवहार धर्म की शरणागत होते वातावरण बनाते सिद्धत्व पाते हैं । 536- निकट भव्य सल्लेखी छत्रधारी तपस्वी, स्वसंयम धारण कर निश्चय व्यवहार धर्म की सल्लेखी शरण लेता है । 537- अदम्य पुरुषार्थी, सल्लेखी, वीतरागी तपश्चरण हेतु अरहंत सिद्धमय होता, निश्चय व्यवहार धर्म की शरण में जाकर चतुराधक तपस्वी बनता और श्रावकों को भी तारता है, जिससे महामत्स्य सा उत्तम संहननी तिर्यंच भी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में अष्टकर्माश्रित चतुर्गति भ्रमण काटने वीतरागी तपश्चरणरत हुआ । 538- रत्नत्रयी सीमाएं बांधते हुए तप करते महाव्रती तपस्वी ने सल्लेखना लेकर चतुराधन करते वीतरागी तपस्या की । 539- आत्मस्थ साधक ने भवघट तिरने दो शुक्लध्यानों से कायोत्सर्गी भगवान के दर्शन किए और वीतरागी तपश्चरण को समता से केवली बन मोड़ने का स्वसंयम उन्नत किया । 540- तीन धर्मध्यानों का स्वामी मन को स्थिर करके पंचपरमेष्ठी के गुणों के चिंतन में लीन होता है । 541- निकट भव्य पंचाचारी तपस्या करता ऐसा आरंभी गृहस्थ है जिसने तीन धर्मध्यानों के स्वामित्व से निकट भव्यत्व पाकर गुणस्थानोन्नति की । 542- अदम्य पुरुषार्थी तीन धर्मध्यानी चतुराधन करता है । 543- प्रतिमाधारी श्रावक की तरह महामत्स्य से उत्तम संहननी ने भवघट तिरने सल्लेखना धारण की और दो धर्मध्यानों से ही सचेलक फिर अचेलक तपस्या करता हुआ सिद्ध की शरण में लीन हुआ । 544- भवघट से तिरने के इच्छुक आरंभी गृहस्थ के तीन धर्मध्यानों से पुरुषार्थ करके उठने का वातावरण विशेष होता है । 545- भवघट से तिरने को दो धर्मध्यानों के साथ छत्रधारी राजा आत्मस्थ तपस्वी की तरह निकट भव्य है जो गुणस्थानोन्नति करता है । 546- पंचाचारी साधक आत्मस्थ होता है । 547- तीसरे धर्मध्यान का स्वामी निकट भव्य है जो घर में वातावरण नौ पदार्थ चिंतन का बनाता है । 548- पुरुषार्थी किसी भी काल उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी सल्लेखी में हो संघ में प्रतिमाएं धारण करके चतुर्विध संघ का अंग बनकर संघाचार्य की शरण में चतुराधन करते दो धर्मध्यानों के स्वामित्व से ही गुणस्थानोन्नति करते हुए शिखर तीर्थ यात्रा करते और स्व संयम से इच्छा निरोध करते हैं । 549- महामत्स्य जैसे उत्तम संहननी ने सभी कालाधों में चार अनुयोगी निश्चय व्यवहार धर्मी संघाचार्यों की शरण में स्थान पाया है। 550- उल्टा स्वस्तिक पर्यायें उत्तरोत्तर हीन कराता है, अतः अमंगलकारी है । 551- जाप करता सल्लेखी निकट भव्य बनकर गुणस्थानोन्नति करता है । 110 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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