SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 व्यंतरदेव । (सिद्धत्व की चाह रखने वाला) मोक्षार्थी चतुर्गति भ्रमण एवं अष्ट कर्म नाशन करने अरहंत पद अथवा कैवल्य प्राप्त करने शिखर तीर्थ पर निश्चय व्यवहारी धर्म की शरण लेता है । जंबूद्वीप में दो धर्म ध्यानों से भी वैराग्य पनपता है। भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी अरहंत पद पाने रत्नत्रयी तपस्या करता तथा चारों कषायें त्याग कर तपरत् रहते समता रखता है । सिद्धत्व हेतु मोक्षार्थी तीन धर्म ध्यानों के स्वामित्व से चार अनुयोगी चतुर्विध संघाचार्य तपस्वी की शरण लेता है। दो धर्म ध्यानों का स्वामी सल्लेखना लेने संघाचार्य की शरण में वीतरागी तपश्चरण हेतु समता सहित पहुंचता है । खरगोश । आरंभी गृहस्थ ने वीतरागी लिंग की साधना घर में ही करके वीतरागी तपश्चरण स्वीकारा । (अ) वैय्यावृत्ती कांभर पर डोली में गुणस्थानी साधक को सल्लेखना में सेवा दे रहे हैं, जो निश्चय-व्यवहार धर्म के पालक हैं तथा जिनका समाधिमरण रत्नत्रय सहित है जो उनके वीतरागी तपके लिए एक कीर्तिवान तपस्वी माने गए हैं । (ब) वे चतुर्गति जन्य भवचक्र नाशक हैं । (अ) दो धर्मध्यानों से ही वह भवघट पार करने संघस्थ पुरुषार्थी है । (अ) तपस्वी रत्नत्रयधारी, वातावरण का निश्चय व्यवहारी तपस्वी है । वातावरण को उन्नत करता पुरुषार्थी सप्त तत्त्व चिंतक है जो सचेलक होकर भी तपस्वी है । भवचक्र से पार होने, मोक्षार्थी, सल्लेखना के भाव से पंचम गति पाने रत्नत्रयधार वीतरागी तपस्या कर रहा है जहाँ सर्प भी उनकी रक्षा करता है। घाति चतुष्क को नाशने दो "धर्मध्यानी" ने सल्लेखना लेकर वैराग्य का वातावरण उत्तरोत्तर उठाया और तीर्थंकर प्रकृति बांधकर पद्मासित "जिन" का सहारा लिया। उनकी सेवा में देव प्रतिबद्ध थे । भवघट से तिरने दो धर्मध्यानों के स्वामी छत्रधारी तपस्वी बनकर स्व संयम स्वीकारते हैं । चार धर्मध्यानी तपस्वी (मुनि) सल्लेखी आरंभी गृहस्थ स्थिति के तीन धर्म ध्यानों के स्वामित्व से स्वसंयम धारते हैं । पंचाचारी ही पंचपरमेष्ठी को ध्याते हैं । अरहंत भक्त ऐलक / आर्थिका वीतरागी तपश्चरणरत हैं। सर्प और कुत्ता दोनों ही पंचपरमेष्ठी की शरण रहे । भवचक्र से तिरने दो धर्मध्यानों का स्वामी निश्चय व्यवहार धर्म की शरण लेकर जिन सिंहासन के पांचों पिच्छीधारी लिगों की शरण में अदम्य पुरुषार्थ के साथ पंचाचार करते हुए समर्पित होते हैं । त्रिगुप्तिधारण (रत्नत्रय सहित) कैवल्य हेतु तीन धर्मध्यानों एवं चारों अनुयोगों के ज्ञान के फलस्वरूप मन को स्थिर करने और स्वसंयमी बनाने से संसार को त्यागने का अदम्य पुरुषार्थ देता है। पंचम गति का साधक चतुराधन व्दारा भवचक्र पार करने की तैयारी करता है । भवघट से पार होने दो धर्मध्यान और पुनः पुनः पुरुषार्थी वातावरण चाहिए । Jain Education International 109 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy