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________________ 489- अणुव्रती ने दो धर्म ध्यानों की भूमिका से उठकर दो शुक्लध्यानी तपस्वी तक का पुरुषार्थ बार-बार उठाते हुए वीतरागी तपश्चरण किया । 490- तद्भवी पंचमगति के लिए निश्चय-व्यवहार धर्मी ने चतुराधन करके दो धर्मध्यानों की भूमिका से सल्लेखना लेकर भवान्तर में चतुराधन करने स्वसंयम साधा । 491- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी रत्नत्रय धारण करके आरंभी गृहस्थ की भूमिका से अदम्य पुरुषार्थ के साथ सिद्धत्व की प्राप्ति करता है । चतुर्गति भ्रमण एवं अष्ट कर्मों को नाशने, सल्लेखी, आरंभी गृहस्थ ने तीन धर्मध्यानों की भूमिका से पुरुषार्थ बार-बार उठाया और महाव्रतियों के संघ में रत्नत्रय धार कर रहा । 493- चतुर्गति भ्रमण एवं अष्ट कर्म नाशन हेतु रत्नत्रयी निश्चय-व्यवहार धर्म और तद्भवी मोक्ष के लिए महाव्रत तपश्चरण आवश्यक है। 495- पंचमगति हेतु कैवल्य की प्राप्ति स्वसंयमी को संघाचार्य की शरण में निश्चय-व्यवहार धर्म के साथ रत्नत्रय पालन से भवघट तिरने हेतु होती है । 496- तपस्वी दो धर्म ध्यानों का स्वामी निकट भव्य है जो वीतरागी तपश्चरण करता है । 497- वह निश्चय व्यवहारी परम वैरागी तीन शुक्ल ध्यानों का स्वामी सिद्धत्व की साधना करता है । (यह भी बनावटी प्रतीत होती है) 498- भवघट से पार होने सल्लेखी तपस्वी आत्मस्थता से निकट भव्य बनकर वीतरागी तपश्चरण करता है । 499- गुणस्थानोन्नति करते निर्ग्रथों ने शिखर तीर्थ पर जाकर वीतराग तप किया। 500- जंबू व्दीप में महामत्स्य जैसे वज्र वृषभनाराच संहनन वाले ही अरहंत पद पाते हैं। 501- अदम्य पुरुषार्थी ने सल्लेखना लेकर वीतरागी तपश्चरण किया और चारों कषायों को दूर करके संघाचार्य के चरणों मे शरण ली । 502- ऐलक (सचेलक) तपस्वी ने प्रतिमाएं धारणकर षट् आवश्यक किए और वीतरागी तपश्चरण स्वीकारा । 503- शिखरतीर्थ पर पुरुषार्थ करके निश्चय व्यवहारी संघाचार्य ने तपश्चरण किया जहाँ मोर भी थे । 504- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी ने तीर्थंकर की शरण में सम्यक्त्व धारण कर स्वसंयम धारा | निकट भव्यों ने वातावरण वीतरागी तपश्चरण का बनाया। (यह भी बनावटी प्रतीत होती है) 506- रत्नत्रयी जंबूद्वीप में पुरुषार्थ उठाते बढ़ाते जाने वाले ही वीतरागी तपस्या कर पाते हैं । 507- जंबूद्वीप में भरत क्षेत्र में छत्रधारी राजा ने सम्यक्त्व स्वीकार कर तपस्या की और आरंभी गृहस्थ की स्थिति से तीन धर्मध्यानों के स्वामित्व का स्वसंयम स्वीकारा । 508- (अ) निकट भव्य ने सल्लेखना लेकर चार गतियों के भ्रमण और अष्ट कर्मों को मेटने वीतराग तप का वातावरण बनाया (ब) जिन सिंहासन के जिनलिंगी अष्ट कर्मों और चतुर्गति भ्रमण का नाश करते हैं । 509- सुगति भ्रमण के जीव पर्वत पर तपस्या करने जाते हैं । 108 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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