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469- छत्रधारी राजा वीतरागी तपस्या करके निकट भव्य बनता है जिसका निश्चय-व्यवहार धर्म (सम्यकदर्शन का श्रद्धान)
एकबार गिरकर फिर उठता है । 470- जिनशासन के (पंच परमेष्ठी) सिंहासन के 5 जिनलिंगी (साधु आर्यिका ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका) अदम्य पुरुषार्थ के
साथ वीतरागी तपस्या सिध्दत्व /मोक्ष के लिए तपते हैं। तीन धर्मध्यान वाले साधक को पैरों पड़ी बेड़ी रोकती है। (अ) नदी के तीर, तीर्थंकर प्रकृतिवान तपस्वीरत वह आरंभी गृहस्थ निकट भव्य बन गया । (ब) गृहस्थ/गृही
शाकाहार वीतरागी तपस्वी के लिए निश्चय-व्यवहार धर्म का रक्षक बन आस्रव से रक्षण करता है । 473- मुनियों की गुणस्थानोन्नति चतुर्गति भ्रमण में उन्हें भवघट से तिराने दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व से संघाचार्य की स्थिति
तक पहुंचाती और रत्नत्रय साधने पर आत्मस्थ कराकर चकवे सा भवघट से तिराती है । 474- पुरुषार्थी रत्नत्रयी स्वसंयम साधने वाला तीर्थंकर प्रकृति को बांध गुणोन्नति करता हुआ भवघट से तिर जाता है। 475- संसारी व्यक्ति भी तीर्थकर प्रकृति को बांधकर दो धर्म ध्यानों से भी जाप करते हुए वीतरागी तप कर सकता है । 476- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी (चौथा गुणस्थानी सम्यक्दृष्टि) पंचाचारी रत्नत्रयी साधु बनकर वीतरागी
तपस्या करता है। 477- संघस्थ प्रतिमाधारी को दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति आत्मस्थ बन जंबूव्दीप में तपस्या से चतुराधक और स्वसंयमी बनने
और अरहंत पद की शरण लेते हुए दशधर्म के सेवन से होती है। 478- भवघट से तिरने, सिद्धत्व की प्राप्ति सप्त तत्त्व चिंतन और पंचम गति की प्राप्ति वीतराग तपश्चरण से होती है । 479- हिरण युगल सोलहवें शांतिनाथ तीर्थंकर के लांछन है । 480
भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी तपस्ययारत होकर दूसरे शुक्लध्यान तक तप साधना करता है । वह
निश्चय-व्यवहार धर्म द्वारा वीतरागी तपश्चरण करता है। 481- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी सल्लेखना द्वारा ढ़ाई द्वीप में पंचाचारी समाधिमरण करके ऐलकत्व से भी
वीतरागी तपस्या प्रारंभ कर सकता है (पंचम गुणस्थान से) 482- यह भी बनावटी सील प्रतीत होती है। 483- (खण्डित है) कालखण्ड उत्सर्पिणी में चतुर्गति भ्रमण नाशने वीतराग तपस्या ही प्रचलित थी । 484
भवचक्र से पार उतरने तपस्वी निकट भव्य होकर गुणस्थानोन्नति करता है । 485- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी समवशरण में जाकर प्रतिमाएं धारणकर अथवा संघस्थ होकर स्वसंयम धारण
करता है | तीन धर्म ध्यानों के स्वामी निकट भव्यों द्वय ने (कुलभूषण देशभूषण) मुनियों की तरह ढाई द्वीप में निश्चय-व्यवहार
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धर्म पालकर आत्मकल्याण का वातावरण बनाया । 487
खण्डित। 488- विदेश से समुद्र मार्गी संपर्क की अभिव्यक्ति बैल (ऋषभ परंपरा) समुद्री घोड़ा (समुद्र मार्ग से यात्रा और व्यापार) अंकन
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