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________________ 447- अरहंत सिद्ध भक्ति, भवचक्र से पार करने की दो धर्म ध्यानी माध्यम है जो दूसरे शुक्लध्यान तक केवली जिन को पंचाचार से प्राप्त होती है और रत्नत्रयी दिगंबर तपस्वी को वीतरागी तपस्या से । 448- अरहंत सिद्ध भक्त सल्लेखनारत साधु । 449- अर्धचक्री का पुरुषार्थ और रत्नत्रय से वातावरण को समाधिमरण के अनुकूल बनाकर वीतरागी तपस्वी तपलीन है । 450- भवघट से पार उतरने दो धर्म ध्यानी डायनासरों (सरीसृपों) जैसे जीवों ने निश्चय-व्यवहार धर्म को अपनाया और वीतरागी तपस्या का पुरुषार्थ उठाया और उत्तरोत्तर उठाते गए । 451- रत्नत्रय से निकट भव्य बर्र जैसी लगन से दो धर्म ध्यानों के स्वामित्व (चौथे गुणस्थान) से तीर्थकर प्रकृति बांधने का पुरुषार्थ उठाते हैं और तपस्वी बनकर पुरुषार्थ से उठते हुए वीतरागी तपस्या करते हैं। दो धर्मध्यानों का स्वामी सल्लेखी दूसरे शुक्लध्यान तक की भूमिका एकदेश व्रती बनकर (ब्रह्मचर्य) से बांधता है । 453- महाव्रत की पिच्छी और चतुराधन तपस्वी को ऋद्धिवान बनाते हैं भले वह वीतरागी तपस्वी तीर्थंकर प्रकृति बांध ले। 454- बाहुबलि का शार्दूलों से खेल । 455- सल्लेखी हर कालार्ध में दो धर्म ध्यानों से उठकर वातावरण को पुरुषार्थ से तीर्थकरत्व से जोड़ते हुए दूसरे शुक्लध्यान तक का बना सकता है यदि उसने दो धर्मध्यान तपस्या और व्रत प्रतिमाएं धारण करके चतुर्गति नाशने कछुए जैसा सावधान बनकर वीतरागी तपस्या की । 456- (अ) सल्लेखी बनता है। (ब) दो धर्म ध्यानों का स्वामी त्रिलोक संस्थान का ध्यान करके (संस्थान विचय से जुड़कर) प्रतिमा संयम धारण करके वातावरण को दूसरे शुक्लध्यान का ध्येय रखकर चारों कषायों को त्यागकर तपस्या में लीन होता है. साधक है। 457- रत्नत्रयी तपस्वी पंचमगति प्राप्ति हेतु सप्त तत्त्व चिंतन करके वीतरागी तप तपते हुए पंच परमेष्ठी आराधन करता है 458- पुरुषार्थ और आत्मस्थता बढ़ाते जाना ही पुरुषार्थी का कार्य है । " 459- सल्लेखना का पुरुषार्थी आरंभी गृहस्थ वीतरागी तपस्वी बन सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। 460- जंबूद्वीप में सल्लेखी भवघट से तिरने चतुराधन "बंधु तपस्वियों" की भांति करता है । 461- पंचमगति प्राप्त करने रत्नत्रय धारक चार अनुयोगी निश्चय-व्यवहार धर्म की शरण में दो धर्म ध्यानों का स्वामी शाकाहारी बनकर अणुव्रती बन, अष्टान्हिका व्रतों का पालन करता युगल बंधु तपस्वियों सी तप साधना करता है । खण्डित। 463- निश्चय-व्यवहार धर्म की शरणागत पुरुषार्थी रत्नत्रयी जंबूद्वीप में दो धर्म ध्यानों का स्वामी अरहंत सिद्ध आराधन करके वीतरागी तपस्या करते हैं । 464- अरहंत पद हेतु रत्नत्रय की साधना जम्बूद्वीप में तीर्थकरत्व दिलाती है। 465- पंचमगति साधक सल्लेखना धार दो धर्म ध्यानी बनकर रत्नत्रयी वैयावृत्ति पाकर रत्नत्रयमय जम्बूद्वीप में रत्नत्रय सहित चतुराधन करते और पंचपरमेष्ठी आराधक होते हैं। 467- रत्नत्रयी तपस्वी का वातावरण दिगंबर मुनि के वैराग्य वाला होता है । 468- भवघट तिरने रत्नत्रयी चतुराधक भवचक्र से पार होते हैं । 106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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