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________________ 425- अर्धचकी का पुरुषार्थ । 426- निश्चय-व्यवहार धर्म को ध्याते छत्रधारी और ऐलक अथवा आर्यिका ने आरंभी गृहस्थ की भूमिका से तीन धर्म ध्यानी बनकर चतुराधक सल्लेखना पूर्वक वीतरागी तप साधना की । 427- अर्धचकी के पुरुषार्थ से पंचम गति की साधना बारह भावना सहित भवचक से हर काल में "बंधु' तपस्वियों (कुलभूषण देशभूषण) को भवचक पार कराती और तीर्थकर प्रकृति दिलाती है । 428- जिनशासन के जिनलिंगी वीतरागी तपस्या द्वारा अरहंत पद के लिए मन वचन काय से आत्मस्थता का अदम्य पुरुषार्थी उद्यम करके निश्चय-व्यवहार धर्म से पंचमगति का साधन बनाते हैं । 429- तीर्थकर के श्रद्धानी महामत्स्य से संहननी भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी तपस्या लीन होकर निकट भव्य बनने रत्नत्रयी जिन तपस्वी बनकर वीतरागी तपस्या तपते हैं । 431- काल के हर युगार्ध में दशधर्मों का पालन और बारह तपों का तपन साधक को इष्ट रहा है । 432- रत्नत्रयी अरहंत प्रभावी (वातावरण) में साधना से दो धर्म ध्यानों के स्वामी को भी वैयावृत्ति दिला देती है, उसका रत्नत्रय संभाल देती है और चारों कषायों को दूर कराकर तपस्या की ओर मोड़ देती है । 433- त्रिगुप्ति का संरक्षण गुणस्थानोन्नति का कारण बनता है। 434- भ्रामक, बनावटी सील प्रतीत होती है। 435- संसार से स्वयं को सुरक्षित करने का उपाय चारों कषायों का त्याग, शाकाहारी जीवन और स्वसंयम है । 436- स्वसंयमी द्वारा को पुरुषार्थ की बार-बार जागृति और स्वसंयम की चेष्टा दूसरे शुक्लध्यान की प्राप्ति तक (12 वे गुणस्थान के अंत तक) रखने पर भवघट से तिरने का लाभ मिलता है जैसा दूसरे धर्म ध्यान के स्वामी बंधुओं (कुलभूषण देशभूषण) को केवलत्व के लिए स्वसंयम से हुआ । । 437 दो धर्म ध्यानों से उठकर भवघट तिरने की यात्रा तपस्वी को दो शुक्लध्यानों तक आवश्यक है । (यह भी कला की दृष्टि से बनावटी लगती है) 438- भवघट से तिरने दो धर्म ध्यानों के स्वामी छत्रधारी राजा थे जो तपस्वी बनकर साधना लीन हुए । 439- भवचक से पार उतरने त्रिगुप्ति का धारक तपस्वी सल्लेखना तत्पर रहता है और तीन धर्म ध्यान ध्याता है । पंचमगति के हेतु आरंभी गृहस्थ सल्लेखना और स्वसंयम तत्पर होते हैं। 441- छत्रधारी राजा ने एकदेश स्वसंयम धारणकर तपस्या करके निकट भव्यता पाई । 442- लोकपूरण करने वाला सल्लेखी आरंभी गृहस्थ था जिसने सल्लेखना केवलत्व और अरहंत पद हेतु की । 443- सिद्धत्व और अरहंत पद हेतु आत्मस्थ वीतरागी तपस्वी ढाईद्वीप में रत्नत्रय पालते है । 444- पंचाचारी ऐलक/आर्यिका निश्चय-व्यवहार धर्म पालन के साथ पंच पापों को त्यागते हैं। 445- भवचक्र पार होने तपस्वी मुनि पंचम गति की साधना अरहंत पद हेतु जाप से करते हैं (ध्यान से) 446- गृही गुणोन्नति से भवघट तिरकर सिद्धत्व पा सकते हैं, लोकपूरन निकट भव्य को सम्यक्त्व से प्राप्त होता है, जैसे आरंभी गृहस्थ को तीन धर्मध्यान दूसरे शुक्लध्यान तक की स्थिति संघस्थ सप्त तत्व चिंतन, पंचमगति का साधन बन वीतरागी तपस्या से तप में सहायता करते हैं। 105 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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