________________
१४ • मङ्गलकलशकथानकम्
लवई तो इमो 'ताय ! किं कज्जं ? ता कहेहि मे' | मंतिणा भणियं ‘वच्छ ! चिट्ठ, ता कइ वि वासरे ॥१४०॥ पच्छा कज्जं कहिस्सामि तुज्झं नत्थेत्थ संसओ' । ' एवं होउ' त्ति तो तेण वयणं तस्स मन्नियं ॥ १४१ ॥ पुणो गएहिं केहिं पि दिहिं तेण पुच्छियं । मंती य आह 'जइ एवं एगचित्तो सुणेहि ता' ॥१४२॥ कहिऊण पुव्ववत्तंतं मंती जंपर सायरं । 'रायकन्नं विवाहेउं मम पुत्तस्स देहि ता' ॥ १४३॥ भणई मंगलक्कलसो 'किमेयं ताय ! जुज्जइ । इहलोय - परत्तेसु विरुद्धं तुह जंपियं ? ' ॥ १४४॥ मंती वि आह 'जइ एवं नो करिस्ससि तो तुहं । ण होही सुंदरं भद्द ! ता मन्न मह भासियं' ॥१४५॥ मंगलकुंभेण संलत्तं 'न एयं मज्झ रोयइ' । तओ रुट्ठो महामंती खग्गं कड्ढे भीसणं ॥ १४६॥ 'सराहि देवयं इटुं जेणं छिदामि ते सिरं । 'सरणं मे जिणा होंतु' अभीओ सो वि जंपइ || १४७||
पाएसु य पडेऊणं तत्तो अब्भितरा नरा | जंपंति 'सामि ! मा एवं करेहि अइदारुणं' ॥१४८॥
जंपिओ दारओ तेहिं 'वच्छ ! मा एरिसं कुण । मन्नेहि य इमं एक्कं मा विणासेहि अप्पयं ॥ १४९ ॥
चितेइ सो वि "एमेव एएणं भवियव्वयं ।
अन्नहा कत्थ उज्जेणी ? कत्थ वा इह आगमो ? || १५० ||
Pistaq
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org