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________________ पहाणुव्वट्टण भावार्थ: स्नान, उबटन, रुव वर्णक, विलेपन, शब्द, रूप, रस, गंध, वस्त्र, आसन और आभरण के विषय में सेवित दिन संबंधी जो छोटे-बड़े अतिचार मैं निवृत्त होता हूँ ।।25।। वन्नग गंधे सद्द-रुव-रस-गंधे वत्थ अनवडणे से आसण लगे हों उन सबसे (आठवें (तीसरे गुणव्रत) अनर्थदण्ड विरमण व्रत के अतिचारों की आलोचना) कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरि-अहिगरण-भोग-अइरित्ते। दंडम्मि अणछाए, तइअम्मि गुणव्वए निंदे ||26।। शब्दार्थ कंदप्पे - कंदर्प के विषय में, काम विकार के विषय में। भोगअइरित्ते - वस्त्र, पात्र आदि चीजों को जरूरत कक्कुइए - कौत्कुच्य के विषय में, अनुचित चेष्टा से ज्यादा रखना। के विषय में। दंडम्मि-अणट्ठाए - अनर्थदण्ड विरमण व्रत के मोहरि - मौर्य, निरर्थक बोलना। नाम के। अहिगरण - सजे हुए औजार या हथियार तैयार रखना। तइयम्मि - तीसरे। गुणव्वए - गुणव्रत के विषय में। निंदे - मैं निंदा करता हूँ। भावार्थ : अनर्थदण्ड विरमण व्रत नाम के तीसरे गुणव्रत के विषय में लगे हुए अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ। इस व्रत के पांच अतिचार हैं :| 1. इन्द्रियों में विकार पैदा करने वाली कथाएं कहना अथवा कुक्कुइए कंदप्पे हास्यादि वचन बोलना ___2. भृकुटी, नेत्र, हाथ, पग आदि द्वारा विट पुरुषों जैसी हास्य जनक चेष्टाएं करना, हंसी, दिल्लगी या भांडों की तरह नकलें करना। Shate .only
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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