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________________ * अन्तराय कर्म * प्रत्येक आत्मा में अनंत शक्ति है। उस आत्म शक्ति को प्रकट करने के लिए जो शक्ति चाहिए उसमें बाधा डालने वाला अन्तराय कर्म है। अन्तराय शब्द का अर्थ है विघ्न, बाधा, रूकावट या अड़चन आदि। जिस कर्म के उदय से जीव को अन्ना की की प्रकृति दान, लाभ, भोग आदि विघ्न या बाधा उत्पन्न हो उसे अंतराय कर्म कहते हैं। आत्मा की अनंत वीर्य शक्ति का घात करने से यह कर्म घाती कर्म है। इस कर्म का स्वभाव भंडारी (कैशियर) के समान है। भंडारी के प्रतिकूल होने पर जैसे राजा किसी याचक को दान देना चाहता है और दान देने की आज्ञा भी देता है परंतु भंडारी इसमें बाधा उत्पन्न कर राजा की दान की इच्छा को सफल नहीं होने देता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म के लिए समझना चाहिए कि वह जीव रूपी राजा के दान, लाभ, भोग आदि की इच्छा पूर्ति में। रूकावट उत्पन्न करता है। अन्तराय कर्म के पांच भेदः1. दानान्तराय :- अपने या दूसरे के कल्याण के लिए अपने अधिकार की वस्तु का गुणीजन आदि को देने हेतु त्याग करना दान कहलाता है। दान की सामग्री पास में हो, गुणवान पात्र दान लेने के लिए सामने हो, दान का फल पता हो, दान की इच्छा भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान देने का उत्साह नहीं होता है, उसे दानान्तराय कहते हैं। जैसे श्रेणिक राजा की दासी कपिला के पास देने योग्य सारी सामग्री उपलब्ध होने और दान देने का आग्रह होने पर भी उसे दान देने का उत्साह नहीं था। बछा के 2. लाभान्तराय :- मनवांछित पदार्थ की प्राप्ति होना लाभ है। दाता उदार हो, दान की वस्तु विद्यमान हो, लेने वाला पात्र भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से उसे इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, उसे लाभान्तराय कहते हैं। ढंढण मुनि को छह महिने तक लाभान्तराय के कारण गवेषणा करने पर भी निर्दोष आहार नहीं मिला। इसका कारण सर्वज्ञ प्रभु नेमिनाथ ने बताया - "पूर्व भव में किसान के रूप में उन्होंने दिन-भर बैलों की जोड़ी से बहुत परिश्रम कराया, किंतु आहार कारणा । नहीं दिया।" 3. भोगान्तराय :- जिन वस्तुओं का एक ही बार उपयोग होता है उसे भोजन भोग कहते है जैसे :- भोजन, पानी आदि। भोग के साधन उपलब्ध है और मनपसंद पदार्थ का सेवन करने की इच्छा भी है तथा त्याग नियम नहीं है फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग्य MI चल भाग MER में अन्तराय &631
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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