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________________ वस्तु का भोग नहीं कर सकता उसे भोगान्तराय कर्म कहते है । मम्मण सेठ ने पूर्व भव में एक मुनि को केसरिया मोदक का लड्डू बहराया। उनके जाने के बाद पड़ोसी के शब्दों से उसके भाव बदल गये । वह मुनि के पीछे भागा और मोदक लौटाने की मांग करने लगा। मुनि ने यह अंतराय देख लड्डू को मिट्टी में परठ दिया। इस कर्म के फलस्वरूप मम्मण सेठ को अपार सम्पत्ति सामग्री मिली किन्तु भोग की शक्ति नहीं मिली। 4. उपभोगान्तराय :- जो वस्तु बार-बार भोगी जा सकती है वह उपभोग्य कहलाती है जैसे :- मकान, वस्त्र, फर्नीचर, आभूषण आदि । उपभोग की सामग्री होते हुए भी जीव जिस कर्म के उदय से उस सामग्री का उपभोग कर न सके उसे उपभोगान्तराय कहते हैं। पवनन्जय को अंजना जैसी सुंदरी सुकुमारी राजपुत्री पत्नी के रूप में मिली, किन्तु उसे बाईस वर्ष तक उपभोग करने का मन नहीं हुआ। 5. वीर्यान्तराय वीर्य यानि शक्ति, सामर्थ्य, पराक्रम, उत्साह या बल। जिस कर्म के उदय से किसी भी कार्य या तप, त्याग आदि आध्यात्मिक प्रवृत्तियों में मानसिकता होने पर भी उत्साहनाश रूप विघ्न उपस्थित होता है उसे वीर्यान्तराय कर्म कहते हैं। मुनि स्थूलिभद्रजी के भाई श्रीयक मुनि का वीर्यान्तराय कर्म इतना प्रबल था कि वे एक दिन का उपवास करने में भी समर्थ नहीं थे । तत्वार्थ सूत्र और कर्मग्रंथ के अनुसार अंतराय कर्मबंध के निम्न कारण : 1. दान देने में रूकावट डालना:- स्वयं दान न देना, कोई दान देता हो तो उसे अच्छा न मानना, किसी को दान देने में विघ्न करना, दानधर्म की निंदा करना इत्यादि से दानान्तराय कर्म बंधता है। : 2. लाभ में अन्तराय डालना:- किसी के लाभ में बाधा डालना, सौदा तुड़वा देना, संबंध समाप्त करवा देना, किसी के भोजन में विघ्न डालना या दूसरों के सुख-साधन प्राप्त होने में अंतराय डालने से लाभान्तराय कर्म का बंध होता है। 3. भोगन्तराय :- किसी के खाने-पीने आदि भोग में बाधा डालना, खाते समय बीच में उठा देना इत्यादि से भोगान्तराय कर्म का बंध होता हैं। इस कर्मबंध से बचने के लिए निम्नलिखित उपाय : प्राणी सेवा (1) पशु-पक्षी या मनुष्य जब खाते हो तो विघ्न नहीं डालना, उन्हें खाते-खाते भगाना या उड़ाना नहीं और न उनका भोजन छीनना । (2) कोई किसी को भोजन देता हो तो उसे रोकना नहीं। (3) भोजन का तिरस्कार नहीं करना । (4) दूसरों को प्रेम से भोजन कराना । (5) घर पर आया अतिथि भोजन किये बिना लौट न जाये इसका ध्यान रखना । भयमुक्त एवं प्रसन्न पक्षी (6) अपंग, निर्बल और रोगी जीवों को भोजन देना । 64 दान
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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