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सहायक नहीं हो सकती। अतः साधना के लिए ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान पूर्वक किया गया आचरण ही योग है, साधना है। अतः ज्ञान योग साधना का कारण है।
व्यवहारिक और पारमार्थिक योग
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योग एक साधना है। उसके दो रूप है 1. व्यावहारिक अथवा बाह्य और 2. पारमार्थिक अथवा आभ्यन्तर। एकाग्रता यह उसका बाह्य रुप है और अहंभाव, ममत्व आदि मनोविकारों का न होना उसका अभ्यंतर रूप है। एकाग्रता उसका शरीर है तो अहंभाव एवं ममत्व का परित्याग उसकी आत्मा है। क्योंकि अहंभाव आदि मनोविकारों का परित्याग किए बिना मन, वचन एवं काय योग में स्थिरता आ नहीं सकती। योगों की स्थिरता, एकरुपता हुए बिना तथा समभाव के बिना योग-साधना हो नहीं सकती। अतः योगसाधना के लिए मनोविकारों का परित्याग आवश्यक है।
अष्टांग योग :
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योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने योग के आठ अंग बताएँ हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
• प्रारम्भिक नैतिक अभ्यास यम और नियम के अन्तर्गत बताया गया है। ये यम और नियम राग-द्वेष से पैदा होने वाले उद्वेगों को संयमित करते हैं । साधक को कल्याणकारी जीवन में प्रतिष्ठित करते हैं ।
1. यम : इसका अर्थ है संयम या नियंत्रण । 1. अंहिसा 2. सत्य 3. अचौय 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह का आचरण यम है ।
2. नियम : नियम शब्द का अर्थ है - नियमित अभ्यास और व्रत पालन ।
1. शौच (शुद्धि) 2. संतोष 3. तप 4. स्वाध्याय 5. ईश्वर प्रणिधान (परमात्म चिंतन ) ये नियम है । 3. आसन : 'स्थिरसुखमासन्' जिसमें हमारा शरीर सुखपूर्वक रह सके वहीं आसन है । आसन से साधक का शरीर सुदृढ़ और हल्का होता है। सुख-दुख सहने की क्षमता बढती है । आसन शरीर को योग साधना के लिए अनुकूल बनाने का साधन है । ये तीनों प्रारम्भिक सीढ़ियाँ बहिरंग साधना कहलाती है ।
4. प्राणायामः प्राणायाम योग का चतुर्थ अंग है । यहाँ प्राण का अर्थ श्वास लेना और छोड़ना है, उसका आयाम अर्थात् नियंत्रण प्राणायाम है । यहाँ पर योगी श्वासोश्वास का संयम करता है ।
5. प्रत्याहार : प्रत्याहार में इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर अन्तर्मुखी करते है । प्राणायाम और प्रत्याहार से साधक का मन वश में आता है। इन दोनों को अंतरंग साधना कहते हैं ।
6. धारणा : चित्त का एक स्थान में स्थिर हो जाना धारणा है । यह स्थान साधक के शरीर के अन्दर भी हो सकता है जैसे नाभिचक्र, नासिका, हृदय पुण्डरिक (कमल), दोनों भृकुटियों के बीच इत्यादि या किसी बाह्य विषय की भी की जा सकती है।
7. ध्यान : धारणा में ज्ञानवृत्ति की निरन्तरता नहीं होती हैं । वह त्रुटित या खण्डित होती रहती हैं । यह
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