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________________ जैन योग योग का महत्व :विश्व की प्रत्येक आत्मा अनंत एवं अपरिमित शक्तियों का प्रकाश पुंज है। उसमें अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख-शांति और अनंत शक्ति का अस्तित्व अन्तर्निहित है। वह अपने आप में ज्ञानवान् है, ज्योतिर्मय है, शक्ति सम्पन्न है और महान् है। वह स्वयं ही अपना विकासक है और स्वयं ही विनाशक है। इतनी विराट शक्ति का अधिपति होने पर भी वह इधर-उधर भटक रहा है। पथभ्रष्ट हो रहा है, संसार-सागर में गोते खा रहा है, अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पा रहा है, अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर पा रहा है। ऐसा क्यों होता है ? इसका क्या कारण है? वह अपनी शक्तियों को क्यों नहीं प्रकट कर पाता है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। जब हम इसकी गहराई में उतरते हैं और जीवन के हर पहलू का सूक्ष्मता से अध्ययन करते है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में योग-स्थिरता का अभाव ही मनुष्य की असफलता का मूल कारण है। मानव के मन में, विचारों में एवं जीवन में एकाग्रता स्थिरता एवं तन्मयता नहीं होने के कारण मनुष्य को अपने आप पर, अपनी शक्तियों पर पूरा भरोसा नहीं होता, पूरा विश पास नहीं होता। उसके मन में, उसकी बुद्धि में सदा-सर्वदा संदेह बना रहता है। वह निश्चित विश्वास और एक निष्ठा के साथ अपने पथ पर बढ़ नहीं पाता | अतः अनन्त शक्तियों को अनावृत करने, आत्म ज्योति को ज्योतित करने तथा अपने लक्ष्य एवं साध्य तक पहुंचने के लिए मन, वचन और काया में एकरुपता, एकाग्रता, तन्मयता एवं स्थिरता लाना आवश्यक है। आत्म-चिंतन में एकाग्रता एवं स्थिरता लाने का नाम ही 'योग' है। __ आत्म-विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों तत्व-चिंतकों एवं मननशील ऋषि मुनियों ने योग-साधना के महत्व को स्वीकार किया है। योग का अर्थ :'योग' शब्द 'युज' धातु और 'धञ्' प्रत्यय से बना है। संस्कृत व्याकरण में 'युज्' धातु दो हैं। एक का अर्थ है - जोडना, संयोजित करना, मिलाना और दूसरे का अर्थ है - समाधि, मनःस्थिरता। भारतीय योग-दर्शन में योग शब्द का उक्त दोनों अर्थों में प्रयोग हुआ है। कुछ विचारकों ने योग का ‘जोड़ने' अर्थ में प्रयोग किया है तो कुछ चिंतकों ने उसका ‘समाधि' अर्थ में भी प्रयोग किया है। महर्षि पतंजलि ने 'चित्त-वृत्ति के निरोध' को योग कहा है। बौद्ध विचारकों ने योग का अर्थ 'समाधि' किया है। आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने अपने योग विषयक सभी ग्रंथों में उन सब बातों को योग कहा है, जिनसे आत्मा की विशुद्धि होती है। कर्म-मल का नाश होता है और उसका मोक्ष के साथ संयोग होता है। ज्ञान और योग : दुनियाँ की कोई भी क्रिया क्यों न हो, उसे करने के लिए सबसे पहले ज्ञान आवश्यक है। बिना ज्ञान के कोई भी क्रिया सफल नहीं हो सकती। आत्म-साधना के लिए क्रिया के पूर्व ज्ञान का होना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य माना है। जैनागम में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि पहले ज्ञान फिर क्रिया। ज्ञानाभाव में कोई भी क्रिया, कोई भी साधना भले ही वह कितनी ही उत्कृष्ट, श्रेष्ठ एवं कठिन क्यों न हो, साध्य को सिद्ध करने में 31
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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