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________________ इस प्रकार साक्षात् तीर्थंकर के अभाव में उनके स्वरुप की कल्पना जो न कर सकता हो उसके लिए तीर्थंकर देव की प्रतिमाजी का ध्यान करने को कहा है। जिनेश्वर भगवान् की मूर्ति के सम्मुख आंखें मूंदे बिना, खुली दृष्टि से देखते रहना, सो इस हद तक कि अपना भान न रहे और एकाकार तन्मय हो जाय, तब तक देखते रहना। उसके साथ अर्न्तदृष्टि प्रतिमाजी पर नहीं बल्कि यह प्रतिमाजी जिन तीर्थंकर देव की है उनके आत्मा के साथ तन्मय होते जाना, क्योंकि हमें प्रतिमाजी के समान नहीं बनना है, लेकिन जिस देव की प्रतिमाजी हैं उन तीर्थंकर देव के आत्मा पवित्र पूर्ण स्वरूप होना है। परमात्मा स्वरुप के साथ एक रस होना अर्थात् अपने में रहे हुए परमात्म स्वरुप में विश्रांति पाना यह रुपस्थ ध्यान है। परमात्मा के स्वरुप के साथ एकाग्रता पाना वास्तव में अपने शुद्ध स्वरुप में प्रवेश करने या आत्म स्वरुप प्रकट करने अथवा सब कर्मों का नाश करने के बराबर है। आलंबन तो साधनरुप है। उन आलंबनों को पकड़ कर बैठे रहना - यह कर्तव्य नहीं है, परंतु आलंबनों की सहायता से कार्य करना है। आत्मा का शुद्ध स्वरुप जितने अंश में प्रकट हो उस रुप में कार्य करना है। यह बात ध्यान करने वाले के लक्ष्य के बाहर जरा भी नहीं जानी चाहिए। रूपातीत ध्यान : रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से अतीत निरंजन, निराकार, ज्ञान स्वरूप सिद्ध परमात्मा का स्मरण करना । इस अवस्था में ध्याता ध्येय के साथ एकत्व की अनुभूति करता है | इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों द्वारा क्रमशः भौतिक तत्वों या शरीर, मंत्रपदों, तीर्थंकर देव तथा सिद्धात्मा का चिंतन किया जाता है, क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में अन्तर नहीं रह जाता । अगुरू tears308
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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