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________________ ज्ञानवृद्धि जब एक ज्ञान (एकमय/उसी रूप एक सा बना रहना) हो जाती हैं तो वह ध्यान की अवस्था कहलाती है | जैसे जल जिस पात्र में रखा जाता है उसी का आकार ले लेता है, उसी वस्तु के आकार वाला बन जाता है । इसलिए परमात्मा का ध्यान करने का विधान किया गया है । 8. समाधि : जब ध्याता ध्येयाकार हो जाता है और उसीके स्वरूप हो जाता है तब वही ध्यान समाधि हो जाता है । यह वह अवस्था है जिसमें ध्यान भी छुट जाता है, केवल आत्मा के अस्तित्व मात्र का बोध रहता है | ध्याता, ध्यान और ध्येय - इन तीनों की एकता जहाँ होती है उसे समाधि कहते हैं | धारणा, ध्यान और समाधि ये अंतिम तीन सीढियाँ आत्मा और परमात्मा में सम्बंध स्थापित करती हैं | इसलिए इन्हें अंतरात्म साधना कहते हैं | समाधि में ज्ञाता (जानने वाला), ज्ञान (जानना) और ज्ञेय (जानने योग्य पदार्थ) एकाकार हो जाते हैं, द्रष्टा (देखने वाला), दर्शन (देखना) और दृष्ट (देखने योग्य पदार्थ) का भेद मिट जाता हैं । योग के विभाग :योगदृष्टि समुच्चय में योग के तीन विभाग है - 1. इच्छा योग, 2.शास्त्र योग और 3. सामर्थ्य योग। 1. धर्म साधना में प्रवृत्त होने की इच्छा रखने वाले साधक में प्रमाद के कारण जो विकल-धर्म-योग है, उसे इच्छा योग कहा है। 2. जो धर्म-योग शास्त्र का विशिष्ट बोध कराने वाला हो या शास्त्र के अनुसार हो, उसे शास्त्र योग कहते है । 3. जो धर्म-योग आत्म शक्ति के विशिष्ट विकास के कारण क्षपक श्रेणी आदि में शास्त्र मर्यादा से भी ऊपर उठा हुआ हो, उसे सामर्थ्य-योग कहते है। योग दृष्टियाँ : जीवन के समग्र कार्यों का मूल आधार दृष्टि ही होती है। सत्व रज और तम में से जिस ओर हमारी दृष्टि चली जाती है, हमारा जीवन प्रवाह उसी ओर स्वतः बढ़ जाता है। इसलिए आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने आत्मा के क्रमिक विकास को ध्यान में रखते हुए योग की आठ-दृष्टियों का उल्लेख किया है। दृष्टि को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा है कि जिससे समीचीन श्रद्धा के साथ बोध हो और जिससे असत् वृत्तियों का क्षय करके सत् प्रवृत्तियां प्राप्त हों। दृष्टि दो प्रकार की होती है - ओघदृष्टि और योगदृष्टि। सांसारिक भाव, सांसारिक सुख, सांसारिक पदार्थ तथा क्रिया कलाप में जो रची-बसी रहती है वह ओघदृष्टि है। इसी प्रकार आत्म तत्त्व, जीवन के सत्य स्वरुप तथा उपादेय विषयों को देखने की दृष्टि योग दृष्टि कही जाती है। ये आत्म स्वरुप से जोड़ने वाले साधना-पथ रुपी योग मार्ग को प्रशस्त करती हैं, इसलिए इन्हें योग दृष्टि कहा जाता है। आचार्य हरिभद्र सूरिजी के योग दृष्टि समुच्चय में आठ प्रकार की दृष्टियों का विवेचन किया गया हैं :1. मित्रादृष्टि :इस प्रथम दृष्टि को आचार्य ने तृण के अग्निकणों की उपमा दी। जिस प्रकार तिनकों की अग्नि में सिर्फ M33 Homjaneltin
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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