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________________ का भी विस्तार से वर्णन है। 2. बृहत्कल्प : कल्प शब्द का अर्थ है मर्यादा। इसमें साधु-साध्वियों के संयम चर्या के संदर्भ में वस्त्र, पात्र, स्थान, विहार, आहार, स्वाध्याय आदि की मर्यादाओं का विशद विवेचन है। 3. व्यवहार : प्रस्तुत आगम की अनेक विशेषताएं है। इसमें स्वाध्याय पर विशेष रुप से बल दिया गया है। साथ ही अयोग्यकाल में स्वाध्याय करने का निषेध किया गया है। साधु-साध्वियों के बीच अध्ययन की सीमाएं निर्धारित की गई है। आहार का कवलाहारी, अल्पाहारी और उनोदरी का वर्णन है। आलोचना एवं प्रायश्चित की विधियों का इसमें विस्तृत विवेचन है। आचार्य, उपाध्याय के लिए विहार के नियम प्रतिपादित किये गये है। साधु-साध्वियों के निवास, अध्ययन, चर्या, वैयावच्च, संघ व्यवस्था आदि नियमों का विवेचन हैं। इसके रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी माने जाते हैं। 4. निशीथ सूत्र : निशीथ शब्द का अर्थ है - छिपा हुआ, अप्रकाश। जो अप्रकाश धर्म-रहस्य-भूत या गोपनीय होता है, उसे निशीथ कहा गया हैं। जिस प्रकार रहस्यमय विद्यामंत्र, तंत्र आदि अनाधिकारी या अपरिपक्व बुद्धि वाले व्यक्तियों को नहीं बताये जाते अर्थात् उन्हें छिपाकर रखा जाता है, उसी प्रकार निशीथ सूत्र भी गोप्य है। इसमें साधु-साध्वियों ने आचार-विचार संबंधी उत्सर्ग और अपवाद विधि का निरुपण तथा प्रायश्चित्त आदि का सूक्ष्म विवेचन है। 5. महानिशीथ : प्रस्तुत आगम में अठारह पापस्थान, कर्मविपाक, प्रायश्चित, आलोचना आदि का वर्णन है। चूलिकाओं में सुसढ आदि की कथाएं है। यहाँ सती प्रथा का और राजा के पुत्रहीन होने पर कन्या को राज गद्दी पर बैठाने का उल्लेख है। 6. जीतकल्प : जो व्यवहार परम्परा से प्राप्त हो एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत हो वह जीत व्यवहार कहलाता है। वर्तमान में पांच व्यवहारों में से जीत व्यवहार प्रमुख कहा गया है। इस ग्रंथ में साधु-साध्वियों के भिन्न-भिन्न अपराध स्थान विषयक प्रायश्चित का जीत व्यवहार के आधार पर निरुपण किया गया है। इसके रचयिता सुप्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण है। पइन्ना (प्रकीर्णक) तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके उत्तम श्रमणों ने प्रकीर्णकों की रचना की है। अथवा श्रुत का अनुसरण करके वचन कौशल से धर्मदेशना आदि के प्रसंग से श्रमणों द्वारा कथित जो रचनाये है वे भी प्रकीर्णक कहलाते है। इसके अन्तर्गत निम्न दस ग्रंथ माने जाते हैं :1. चतुःशरण 2. आतुरप्रत्याख्यान 3. महाप्रत्याख्यान 4. भक्त परिज्ञा 5. तन्दुलवैचारिक 6. संस्तारक 7. गच्छाचार 8. गणिविद्या 9. देवेन्द्रस्तव 10. मरणसमाधि FotonAY
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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