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________________ इन नामों में एकरुपता नहीं है। किन्हीं ग्रंथों में मरण समाधि और गच्छाचार के स्थान पर चन्द्रवेध्यक और वीरस्तव को गिना गया है। श्वेताम्बर स्थानकवासी और तेरापंथी इन प्रकीर्णकों को मानते नहीं है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक इन प्रकीर्णकों को मानते है। ____ 1. चतुःशरण : इसमें अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली भाषित धर्म इन चार का शरण लिया गया है। इसलिए इसे चतुःशरण कहा गया है एवं पंडित मरण किस तरह पाना यह बताया गया है। 2. आतुरप्रत्याख्यान : यह ग्रंथ मरण से संबंधित है। इसमें मरण के बाल, बालपंडित और पंडित ये तीन प्रकार के मरण के बारे में विवेचन है। 3. महाप्रत्याख्यानः इसमे प्रकीर्णक में त्याग का विस्तृत वर्णन है। 4. भक्त परिज्ञा : प्रस्तुत प्रकीर्णक में भक्त परिज्ञा नामक मरण का विवेचन मुख्य रुप से होने के कारण इसका नाम भक्त परिज्ञा है। वास्तविक सुख की उपलब्धि जिनाज्ञा की आराधना में होती है। पंडित मरण से आराधना पूर्णतया सफल होती है। पंडित मरण (अभ्युदय मरण) के भक्त परिज्ञा, इंगिनी और पादपोपगमन इन तीन भेदों का वर्णन किया गया है। इस प्रकीर्णक के कर्ता वीरभद्र है। 5. तन्दुलवैचारिक : इसमें विस्तार से गर्भ विषयक विचार किया गया है। 6. संस्तारक : जैन साधना पद्धति में संथारा-संस्तारक का अत्यधिक महत्व है। जीवन भर में जो भी श्रेष्ठ और कनिष्ठ कार्य किये हों उसका लेखा लगाकर अंतिम समय में समस्त पाप प्रवृत्तियों का परित्याग करना, मन, वचन और काया को संयम में रखना, ममता से मन को हटाकर समता में रमण करना, आहार आदि समस्त उपाधियों का परित्याग कर आत्म-चिंतन करना, यही संस्तारक यानि संथारे का आदर्श है। इसमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य संथारे का महत्व प्रतिपादित किया है। संथारे पर आसीन होकर पंडितमरण को प्राप्त करने वाला श्रमण मुक्ति को प्राप्त करता हैं। इस प्रकार के अनेक मुनियों के दृष्टांत प्रस्तुत प्रकीर्णक में दिए गये हैं। 7. गच्छाचार : इसमें गच्छ अर्थात् समूह में रहने वाले साधु-साध्वियों के आचार का वर्णन हैं। जिस गच्छ में दान, शील, तप और भाव इन चार प्रकार के धर्मों का आचरण करने वाले गीतार्थ मुनि अधिक हो, वह सुगच्छ है और ऐसे गच्छ में रहने से महानिर्जरा होती है। साध्वियों की मर्यादा का वर्णन करते हुए बताया है कि जिस गच्छ में स्थविरा वृद्धा साध्वी के बाद युवती साध्वी और युवती साध्वी के बाद स्थविरा, इस प्रकार सोने की व्यवस्था हो, वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आधारभूत श्रेष्ठ गच्छ हैं। 8. गणिविद्या : यह ज्योतिष का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें 1. दिवस 2. तिथि 3. नक्षत्र 4. करण 5. ग्रह दिवस 6. मुहूर्त 7. शकुन 8. लग्न और 9. निमित्त - इन नौ विषयों का विवेचन हैं। 9. देवेन्द्रस्तव : इस प्रकीर्णक में बत्तीस देवेन्द्रों (इन्द्रों) के नाम, आवास, स्थिति, भवन, विमान, अवधिज्ञान, परिवार आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। prival
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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