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________________ सर्वेषुत्तमपर्वसु प्रगदितः श्री पर्वराजस्तथा ||1|| सभी मंत्रों में भी नवकार मंत्र, सभी तीर्थों में श्री शत्रुंजय तीर्थ, सब ही प्रकार के दानों में अभयदान, सब ही गुणों में विनय गुण, विश्व के सब ही व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत, नियमों में संतोष, तपों में क्षमा तप और सब तत्वों में सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है। उसी प्रकार सब पर्वों में पर्युषण पर्व श्रेष्ठ पर्व है । पर्युषण का अर्थ :- पयुर्षण का शाब्दिक अर्थ है परि चारों ओर से सिमटकर, वसन एक स्थान पर निवास करना या स्वयं में वास करना । - पर्युषण मूलतः प्राकृत भाषा का “पज्जुसणा" या "पज्जोसमणा' शब्द से आया है। पज्जूसण पर्युषण :- परि उपसर्ग और उष् धातु दहन (जलना) अर्थ का भी सूचक है । इस व्याख्या की दृष्टि से इसका अर्थ होता है सम्पूर्ण रूप से दग्ध करना अथवा जलाना । इस पर्व में साधना एवं तपश्चर्या के द्वारा कर्म रूपी मल को अथवा कषाय रूपी मल को दग्ध किया जाता है, इसलिए पज्जूसण (पर्युषण) आत्मा के कर्म एवं कषाय रूपी मलों को जला कर उसके शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने का पर्व है । पज्जो समणा (पर्युपशमना) पज्जोसमणा शब्द की व्युत्पत्ति परि + उपशमन से भी की जाती है । परि अर्थात् पूरी तरह से, उपशमन अर्थात् उपशांत करना । पर्युषण पर्व में कषायों की अथवा राग-द्वेष की वृत्तियों को सम्पूर्ण रूप से क्षय करने हेतु, साधना की जाती है । पर्युषण पर्व की ऐतिहासिकता जैन आगम साहित्य का अनुशीलन करने पर पता चलता है पर्युषण पर्व की आराधना के पीछे एक महत्वपूर्ण भौतिक पर्यावरण का कारण भी है। पृथ्वी के भौतिक वातावरण में आये परिवर्तन से इसका संबंध है। जैन काल-चक्र की गणना के अनुसार अभी पाँचवा दुषम काल चल रहा हैं। यह 21 हजार वर्ष का है। इसके बाद छठा आरा आयेगा जो इससे भी भयानक प्राकृतिक आपदाओं वाला होगा। पृथ्वी का तापमान अत्यंत गर्म हो जायेगा। गंगा, सिंधु नदी का पानी प्रायः सूख जायेगा, सूर्य आग के गोले की तरह तपेगा । दिन के समय पृथ्वी पर चलना भी मुश्किल हो जायेगा। मनुष्य बिलों में रहकर दिनभर गर्मी से बचेंगे। सूर्यास्त होने के बाद बिलों से निकलकर भोजन की तलाश में नदियों के किनारे घूमने लगेंगे। नदियों के क्षुद्र जल में से मच्छ-कच्छ आदि जीवों से अपने पेट की भूख मिटायेंगे। क्योंकि वर्षा बहुत कम होगी, धरती के रस स्त्रोत भी सूख जायेंगे ! जिस कारण अन्न-धान्य बहुत ही कम उत्पन्न होंगे। वृक्ष भी पतझड़ जैसे सूखे हो जायेंगें। पर्यावरण का यह परिवर्तन मनुष्य को शाकाहारी से माँसाहारी बनने पर मजबूर कर देगा। इस प्रकार का छठा दुषम-दुषमा आरा भी 21 हजार वर्ष का होगा। इसके बाद उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होगा। इस कालचक्र का पहला आरा भी छठे आरे जैसा ही भीषण कष्टमय होगा। फिर दूसरा दुषम आरा प्रारंभ होगा। तब पृथ्वी एवं प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन होगा। संवर्तक मेघ, घृत मेघ, अमृत मेध और रस मेघ की वर्षा होगी। बीच-बीच में सात-सात दिन का उघाड़ भी होगा। इस प्रकार दूसरे आरे के प्रारंभ में 28 दिन वर्षा के $111
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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