SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और 21 दिन उघाड़ के यों 49 दिन (सात सप्ताह) के बाद जब पृथ्वी का वातावरण शीतल व रसमय हो जायेगा तब धरती पर घास, धान आदि अंकरित होंगें । तब बिलों में रहने वाले मानव बाहर निकलेंगे, पृथ्वी पर उगी वनस्पतियाँ व फल आदि देखकर वे कह उठेंगे-अब हम तो माँसाहार नहीं करेंगे। वनस्पति व फल इत्यादि खाकर ही अपनी उदरपूर्ति किया करेंगे। माँसाहार करने वालों की छाया से भी दूर रहेंगे। - इस प्रकार का पवित्र संकल्प आषाढ़ी पूनम से 49 या 50 दिन बीत जाने पर किया जाता है, इसलिए यह 50वां दिन अर्थात श्रावण मास के 30दिन व भाद्रपद के 20 दिन बीत जाने पर भाद्रपद शुक्ल चौथ या पांचम के दिन अहिंसा का, जीव-दया का एक ऐतिहासिक संकल्प उस दिन किया जाता है। पिछले काल-चक्र के उत्सर्पिणी काल में यह घटना घट चुकी है और प्रत्येक उत्सर्पिणी काल के दूसरे आरे के प्रारंभ में इस प्रकार हिंसा व क्रूरता की तरफ गया मानव दया व करुणा की तरफ मुड़ता है। अहिंसा का पवित्र संकल्प लेकर मानव जाति के अभ्युदय व विकास का पथ प्रशस्त करता है। संवत्सर के सातवें सप्ताह में यह परिवर्तन आता है। एक तो वातावरण में रसमयता व शीतलता बढ़ती है। दूसरी इस प्राकृतिक वातावरण के प्रभाव से मनुष्य की भावनाओं में परिवर्तन आता है। क्रूरता के भाव कोमलता में बदलते हैं इस कारण यह सातवाँ सप्ताह अर्थात् भाद्रपद मास का तीसरा सप्ताह अध्यात्म-जागरण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन दिनों में आठ दिन का पर्युषण पर्व मनाया जाता है। आठ दिन का धार्मिक जागरण, व्रत, तप, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण आदि आत्म-जागृति की प्रवृत्तियों में लीन रहकर मनुष्य अपने आत्मिक अभ्युदय के लिए प्रयत्नशील होता है। तो, इस प्रकार पर्युषण पर्व की पवित्र परम्परा कोई रूढ़ि या अंध मान्यता नहीं है, यह एक प्राकृतिक पर्यावरण से संबंधित सत्य है। ___ वर्तमान में हम जो पर्युषण मनाते है, वह आठ दिन का मनाया जाता है। यह अष्टान्हिका पर्व की परम्परा सिर्फ प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शासनकाल में ही निहित है। अन्य 22 तीर्थंकरों के शासन में पर्युषण जैसा कोई विधान नहीं है। उनके युग में यह परम्परा रहती है कि जब भी चारित्र में कोई भी दोष लगा हो तो प्रतिक्रमण या क्षमापना कर लें। पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की उन्हें आवश्यकता नहीं रहती। __कहा जाता है कि अवती, अप्रत्याख्यानी और दिव्य परिभोगों में मग्न रहने वाले देवता भी इस महापर्व के दिनों में श्री नन्दीश्वरद्वीप के शाश्वतचैत्य में श्री जिनबिम्बों की पूजा तथा उत्सवादि दिव्य समारोह मनाकर जीवन सफल बनाते है। विभिन्न संप्रदायों में पर्युषण की अवधि : वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा का मूर्तिपूजक संप्रदाय इसे भाद्र कृष्णा द्वादशी से भाद्र शुक्ला चतुर्थी तक तथा स्थानकवासी और तेरापंथी संप्रदाय इसे भाद्र कृष्णा त्रयोदशी से भद्र शुक्ला पंचमी तक मानता है। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व भाद्र शुक्ला पंचमी से भाद्र शुक्ला चतुर्दशी तक मनाया जाता है। उनमें यह दशलक्षण पर्व के नाम से जाना जाता है। इन दस दिनों में क्षमा आदि दस धर्मों की आराधना की जाती है। erSOPERS 12
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy