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________________ रक्षाबंधन, राम नवमी आदि लौकिक पर्व है क्योंकि इनका संबंध हमारे भौतिक जगत के साथ अधिक है। इन पर्वो को हम तीन वर्गों में बांटते है :1. लोभजन्य पर्व :- दीपावली में जो लक्ष्मी पूजन किया जाता है उसमें धन-धान्य की समृद्धि की कामना की जाती है, ऐसे पर्व लोभ भावना के प्रतीक है। ___2. विजयजन्य पर्व :- दशहरा विजय पर्व के रुप में मनाया जाता है। तलवार की पूजा, मनुष्य की विजय भावना का प्रतीक है। 3. भयजन्य पर्व :- होली, शीतला सप्तमी, नागपंचमी आदि पर्व भयजन्य पर्व कहलाते है। देवी-देवता को प्रसन्न रखने और अनिष्ट से बचने की भावना इनमें मुख्य रहती है। लोकोत्तर पर्व : दूसरे प्रकार के पर्वो को लोकोत्तर पर्व कहा जाता है। ये आध्यात्मिक या धार्मिक पर्व भी कहे जाते है। ये पर्व त्याग और साधना प्रधान होते है। इनमें भोजन के स्थान पर भजन, उपवास, नाच-गाने के स्थान पर ध्यान-साधना, मंत्र साधना, तप-त्याग, सेवा, दान आदि आध्यात्मिक विकास करने वाली प्रवृत्तियों का महत्व होता है। पर्युषण, नवपद ओली, ज्ञान पंचमी, महावीर जन्म कल्याणक, अट्ठाइयाँ, अक्षय तृतीया, कल्याणक दिवस, अष्टमी, चतुदर्शी आदि लोकोत्तर पर्व है। इन पर्यों की यह विशेषता है कि ये व्यक्ति में त्याग, स्वाध्याय, अहिंसा, सत्य, प्रेम तथा विश्व मैत्री की भावना को जागृत करने वाले होते हैं । इनके पीछे आत्म विकास एवं आत्म शुद्धि की प्रेरणा छिपी है। ___ लौकिक पर्यों में जहाँ हमारी दृष्टि शरीर, धन सम्पत्ति एवं आमोद-प्रमोद तक ही टिकी रहती है, वहाँ लोकोत्तर पर्व के दिनों में हमारी दृष्टि ऊर्ध्वमुखी होती है। हम शरीर से ऊपर उठकर आत्मा का दर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। इन पर्व दिनों में आत्मिक शुद्धि, क्रोध-कषाय आदि का त्याग कर शान्ति और समता का अभ्यास किया जाता है। . पर्युषण पर्व जैनधर्म की दृष्टि से इस प्रकार के लोकोत्तर पर्यों में पर्युषण पर्व का सर्वोत्तम स्थान है। पर्युषण पर्व को पर्वाधिराज, सर्वपर्वशिरोमणि या महापर्व भी कहा गया है। इसका कारण इस पर्व की अध्यात्मोन्मुखी दृष्टि है। इस पर्व में वीतराग भाव की विशेष साधना की जाती है। परस्पर वैर विरोध को शांत कर क्षमा, प्रेम एवं मैत्री भाव की गंगा बहाई जाती है। पर्युषण की महत्ता और गरिमा बतलाते हुए कहा गया है :मंत्राणा परमेष्ठिमन्त्रमहिमा तीर्थेषु शत्रुज्जयो, दाने प्राणिदया गुणेषु विनयो ब्रह्मव्रतेषु व्रतम् ।। संतोषे नियमः तपस्सु च शमः तत्वेषु सद्देशनम्, worshrsatrnosot POPxoooooooooxoxoxoxoxoxo pooooooooooooooooooooooos Poomooooooooooooooooo r o10 PARAN
SR No.004054
Book TitleJain Dharm Darshan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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