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________________ कम्मट्ठविणासण कम्मट्ठ विणासरण :आठो कर्मों का नाश करनेवाले चउवीसं पि:चौबीसों जिणवर : हे जिनवर ऋषभादि तीर्थकर जयंतु आपकी जय हो। राज्यभुगिरि उत्कृष्ट १७० तीर्थंकर 1 85 अप्पडिहयसासण अप्पडिहय सासण अखण्डित शासनवाले, अबाधित उपदेश देनेवाले। ANT कम्यगिरि ATION संघयण हड्डियों की विशिष्ट रचना । जिनेश्वरों की संख्या । : कम्मभूमिहिं :- कर्मभूमियों में पढमसंघयणि प्रथम संहननवाले, वज्र ऋषभ नाराच संघयण वाले उक्कोसय: अधिक से अधिक सत्तरिसय एक सौ सत्तर (170) । जिणवराण विहरत :- विचरण करते हुए विद्यमान। लब्भइ प्राप्त होती है। नवकोडिहिं नौ करोड । केवलीण केवलियों की, सामान्य केवलियों की। कोडिसहस्स नव :- नव हजार करोड । साहु गम्मइ : साधु होते है, ज्ञानी होते हैं। संपइ :- वर्तमानकाल में। जिनवर : तीर्थंकर वीस बीस। मुणि: मुनि बिहुं कोडिहिं दो करोड वरनाणि केवलज्ञानी । समणह :कोडि सहस्स दुअ: दो हजार करोड । थुणिज्जइ स्तवन किया जाता है। निच्च नित्य विहाणि :- प्रातः काल में। : श्रमणों की संख्या उत्कृष्ट १७० तीर्थंकर www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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