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________________ आगामी जन्म का आयुष्य बंध सकता है। यदि उस समय न बंधे तो शेष तीस वर्ष के दो भाग यानी बीस वर्ष बीत जाने पर शेष 1/3 यानी दस वर्ष में उसका आयुष्य बंध सकता है अर्थात् पूर्ण आयु नब्बे वर्ष की होने से अस्सी वर्ष बीत जाने पर आयुष्य बंधता है। उस वक्त भी न बंधे तो अंतिम दस वर्ष के भी दो भाग बीत जाने पर आयुष्य कर्म बंधता है। * आयुष्य कर्म के दो प्रकार है: 1. अनपवर्तनीय आयुष्य 2. अपवर्तनीय आयुष्य 1. अनपवर्तनीय आयुष्य :- यह आयुष्य वह है जो बीच में टूटती नहीं और अपनी पूरी स्थिति भोग कर ही समाप्त होती है। अर्थात् जितने काल के लिए बंधी है उतने काल तक भोगी जाये वह अनपवर्तनीय आयुष्य है। इसमें आयुष्य कर्म का भोग स्वाभाविक एवं क्रमिक रुप से धीरे - धीरे होता है। देव, नारकी, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, उत्तमपुरुष, चरम शरीरी (उसी भव में मोक्ष जाने वाले जीव) और असंख्यात वर्ष जीवी, अकर्मभूमि के मनुष्य और कर्मभूमि में पैदा होनेवाले यौगलिक मानव और तिर्यंच ये सब अनपवर्तनीय आयुष्य कर्म वाले होते हैं। 2. अपवर्तनीय आयुष्य :- यह आयुष्य वह है जो किसी शास्त्र, विष, पानी आदि का निमित्त पाकर बांधे गये नियत समय से पहले भोग ली जाती है। इसमें आयुष्य कर्म शीघ्रता से एक साथ भोग लिया जाता है। अर्थात् आयु का भोग क्रमिक न होकर आकस्मिक रुप से होता है उसे अपवर्तनीय आ युष्य कहा जाता है। इसे व्यावहारिक भाषा में अकाल मृत्यु अथवा आकस्मिक मरण भी कहते हैं। बाह्य कारणों का निमित्त पाकर बांधा हुआ आयुष्य अन्तर्मुहुर्त में अथवा स्थिति पूर्ण होने से पहले शीघ्रता से एक साथ भोग लिया जाता है। * आयुष्य कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ * __आयुष्य कर्म की उत्तर प्रकृतियां चार है :- 1. नरकायु 2. तिर्यंचायु 3. मनुष्यायु और 4. देवायु। इस संसार में जितने भी संसारी जीव है उन्हें नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार विभागों में बांटा गया है। समस्त संसारी जीव आयुष्य कर्म से युक्त होते हैं। इसलिए आयुष्य कर्म के चार भेद बताये गये हैं। नरकायु :- जिस कर्म के उदय से नरक गति का जीवन बिताना पडता है, उसे नरकायु कहते हैं। स्थानांग सूत्र में नरकायुष्य कर्मबंध के चार कारण बताये गये हैं 1. महारंभ 2. महापरिग्रह 3. पंचेन्द्रिय वध और 4. मांसाहार नरकायुष्य कर्मबंध के 1. महारम्भ :- आरम्भ अर्थात् हिंसाजनक क्रियाकलाप। तीव्र चार कारण है। क्रूर भावों के साथ अधिक संख्या में या अधिक मात्रा में किया गया कार्य महारम्भ कहलाता है। जो आत्मा महारंभ में आसक्त रहती है वह नरक गति का आयुष्य बांध लेती है। महारंभ में आसक्त कालसौरिक कसाई प्रतिदिन पाँच सौ भैंसों की हत्या करने के कारण सातवीं नरक में गया। जो लोग बडे पैमाने पर ऐसी पार्टी या महाभोज आयोजित करते हों जिसमें असंख्य त्रस जीवों की हिंसा होती हो एवं जो मांस - मछली, अण्डों का निर्यात करते हैं तो उन्हें fiotiraudraiya 79
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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