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________________ हिंसक वृत्ति के फलस्वरुप महारंभ के कारण नरक गति का मेहमान बनना पडता है। जिस व्यवसाय में असंख्य जीवों की (एकेन्द्रिय से पंचेन्दिय तक) हिंसा होती है, उसको आरंभ समारंभ कहते हैं। जो मनुष्य आरंभ - समारंभ में आसक्त रहते हैं या जो आरंभ समारंभ करते हुए करणीय - अकरणीय कार्य का तनिक भी विचार नहीं करते वे नरक गति का आयुष्य बांध लेते हैं। 2. महापरिग्रह :- इसका अर्थ है वस्तुओं पर अत्यंत मूर्छाभाव या आसक्ति रखना। अत्याधिक परिग्रह रखने का भाव यानी अत्यधिक संचय करने की वृत्ति। जैसे मम्मण सेठ ने सांसारिक पदार्थों पर अत्यंत आसक्ति रखी। उसने हीरे - मोती रत्नों से जडित एक बैल बना लिया था और वैसा दूसरा बैल बनाने के लिए वह कठोर श्रम कर रहा था किंतु मरने के बाद उसे सातवीं नरक में जाना पडा जहां भयंकर यातनाएं सहनी पडती है। ममता - मूर्छा भाव ही वस्तुतः परिग्रह का केन्द्रिय अर्थ है। बाह्य वस्तुओं पर या अपने शरीर आदि पर जो आसक्ति है वह परिग्रह है। यहां महा शब्द से ममता भाव की तीव्रता सूचित की गई है। विशाल धन - संपत्ति होने मात्र से कोई महापरिग्रही नहीं हो जाता | जैसे आनंद, कामदेव आदि श्रमणोपासकों के पास बारह क्रोड सोनैया आदि की संपत्ति थी किंतु उस धन के प्रति उनको तीव्र ममता नहीं थी। भरत चक्रवर्ती के पास छः खण्ड का साम्राज्य तथा विशाल वैभव था किंतु वे महापरिग्रही नहीं थे क्योंकि वे अनासक्त थे। जिसके पास संपत्ति नहीं है परंतु संपत्ति की कल्पना करके जो आसक्ति करता है वह भी नरक गति का आयुष्य कर्म बांध लेता है। मनुष्य के पास संपत्ति - वैभव हो या न हो जहां आसक्ति है वहाँ परिग्रह है। ____3. पंचेन्द्रिय वध :- मनुष्य, पशु - पक्षी आदि पंचेन्द्रिय जीव संकल्प की बुद्धि से वध करना। जो लोग देव - देवीयों को बलि चढाने, तस्करी - डकैती करने, शिकार करने या कसाईखाना चलाने के लिए आतंकवाद से प्रेरित होकर या क्रूरतापूर्वक द्वेषवश निर्दोष मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, मछलियों आदि पंचेन्द्रिय प्राणियों का वध करते हैं और गर्भपात कराते हैं वे भी नारकीय जीवन प्राप्त करते हैं। 4. मांसाहार :- मांस, मछली और अण्डों आदि शा इतन में मिश्रित पदार्थों का सेवन करना - कराना भी तीव्र हिंसाकारक परिणाम होने से नरकायु का बंध कराता है। * तिर्यंचायु :- जिस कर्म के उदय से आत्मा को तिर्यंच योनी में जीवन बिताना पडे वह तिर्यंचायु कर्म है। तिर्यंचायु के कर्मबंध के चार कारण है। अभक्ष्य तिर्यंचायु कर्मबंध के चार कारण : Jain Education International For Personal pese Only 801 www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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