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________________ चतुविध संघ प्रवचन, दर्शन ज्ञान जिनमंदिर Joges 4. जिनेश्वर परमात्मा, अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा, मंदिर, चतुर्विध संघ (साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका ), श्रुतज्ञान आदि भवसागर तिरने के लिए नाव के समान है। इनका वैर - विरोध, शत्रुता, निंदा, टीका टिप्पणी करने से दर्शन मोहनीय कर्म का बंध होता है। दर्शन मोहनीय कर्म से जीव दुर्लभ बोधी होता है एवं अनंत भवों तक भटकता रहता है। * कषाय मोहनीय बंध के कारण चारित्र 3. देवद्रव्य का हरण :- जिन मंदिर / प्रतिमा हेतु अर्पित राशि को देवद्रव्य कहते हैं। उस राशि का हरण करना, अन्य को हरण करते हुए जानने पर भी उपेक्षा करना, शक्ति होने पर भी उसे नहीं रोकना। - स्वयं कषाय करना, दूसरों में भी कषाय जगाना तथा कषाय के वशीभूत होकर अनेक तुच्छ प्रवृत्तियां करना आदि कषाय मोहनीय बंध के कारण हैं। * मोहनीय कर्म के निवारण के उपाय 1. सभी जीवों के साथ समान व्यवहार, सहनशीलता, सम्यक समझ और संसार में कमल की तरह निर्लिप्त रहने से मोहनीय कर्म का क्षीण होता है, जैसे भरत चक्रवर्ती को छः खण्ड की राज्य - समृद्धि और भोग सामग्री मिली फिर भी वे सबसे निर्लिप्त रहे । परिणाम स्वरुप अपने महल में ही मोहनीय कर्म का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। 2. आत्मा और शरीर के भेद विज्ञान का चिंतन करने से सग्गे - संबंधी परिवार, धन-दौलत आदि शरीर के संबंधी है, आत्मा के नहीं 3. क्रोधादि कषायों पर विजय पाने का प्रयास करने से। अर्थात् क्रोध को क्षमा से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से, और लोभ को संतोष से जीतने से । 4. हास्यादि नोकषायों से सावधान होकर चलने से । 5. मिथ्यात्व की गाढता को मिटाकर सुदेव - सुगुरु- सुधर्म के प्रति श्रद्धा रखने से । 6. आत्म स्वरुप का चिंतन करने से और पर - पदार्थों के प्रति विरक्ति रखने से तथा । 7. राग - द्वेष मोह कर्म के बीज है। अतः सुख - दुःख, संयोग वियोग की परिस्थिति में समभाव रखने से मोहनीय कर्म क्षय होता है। 77
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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