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________________ अरति मोहनीय कर्म का बंध होता है। 4. भय :- भय उत्पन्न होना। कारागृह में कैद श्रेणिक राजा तलवार हाथ में लिए पुत्र को आते देखा तो भयभीत हो अंगूठी का हीरा चूसकर प्राण त्याग दिए। स्वयं भयभीत होने से अथवा अन्य को भयभीत करने से भय मोहनीय कर्म का बंध होता है। 5. शोक :- जिसके उदय से इष्ट के वियोग से, अनिष्ट के संयोग से, चित्त में अफसोस हो या दुःखी होना शोक है। चक्रवर्ती की स्त्री रत्न (पटरानी) छः महिने तक महाशोक करके छट्ठी नरक में उत्पन्न होती है। स्वयं शोक करना अथवा अन्य को दुःखी करने से शोक मोहनीय कर्म का बंध होता है। 6. जुगुप्सा :- जिसके उदय से दुर्गंधी पदार्थों के प्रति घृणा पैदा होना। अशुचिमय पदार्थों को अथवा कुरुपता को देखकर नाक - भौं सिकोडना। अभिमान वश किसी की घृणा करने से जुगुप्सा मोहनीय कर्म का बंध होता है। एक कोढी को समवसरण में आते देखकर कई व्यक्तियों को करुणा आई, किसी को कर्म स्वरुप का चिंतन प्रारंभ हुआ, किसी को शरीर व्याधि घर है, इस सत्य का बोध हुआ किंतु कुछ जुगुप्सा भाव ग्रस्त भी हुए। 7. स्त्रीवेद :- जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ भोग करने की इच्छा हो। दिन - रात विषय आसक्ति में डुबे रहने से तथा दूसरों से ईर्ष्या भाव रखने से स्त्रीवेद कर्म का बंध होता है। 8. पुरुष वेद :- जिसके उदय से स्त्री के साथ भोग करने की इच्छा हो। जो पुरुष परस्त्री का त्याग करके अपनी स्त्री में संतुष्ट रहता है वह पुरुष वेद का बंध करता है। 9. नपुंसक वेद :- जिसके उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ भोग करने की इच्छा हो। तीव्र कामुकता से इस वेद का बंध होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर मोहनीय कर्म के 28 भेद हुए हैं। * दर्शन मोहनीय के बंध के कारण * 1. उन्मार्ग की देशना :- उन्मार्ग अर्थात् गलत मार्ग या विपरीत मार्ग का उपदेश देना। संसार के कारणों और कार्यों का मोक्ष के कारणों के रुप में उपदेश देने को उन्मार्ग देशना कहते हैं। 2. सन्मार्ग का नाश :- सन्मार्ग अर्थात् सुमार्ग, सच्चा मार्ग। ऐसे मार्ग का विनाश करना। जैसे न मोक्ष है, न पुण्य - पाप है, जो कुछ सुख है वह इसी जीवन में है। खाओ - पीओ मौज उडाओ ! पुनर्जनम नहीं है। क्युं तप करके शरीर सुखाना? आदि उपदेश देकर भोले जीवों को सन्मार्ग से हटाने से दर्शनमोहनीय कर्म का बंध होता है। जिस प्रकार नशे में मनुष्य अपने को पल जाता है उसी प्रकार मोहनीय कर्म में आत्मा निजस्वरूप को भलाका संसार में भटक जाता-हा Jan Education International For Personal e Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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