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________________ करने की इच्छा इस लोभ में होती है। काजल के रंग के समान यह लोभ कुछ प्रयत्न से दूर होता है। * संज्वलन कषाय :- सर्व विरति युक्त साधु को जो कषाय मंद / अल्प रुप से दोष युक्त बनाता है, चारित्र को मलिन करता है, आत्मा को यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति न होने देता है, वह संज्वलन कषाय है। यह केवलज्ञान की उत्पत्ति में बाधक बनता है। यह कषाय उपसर्ग या कष्ट आने पर साधु के चित्त में समाधि और शांति नहीं रहने देता किंतु इसका असर लम्बे समय तक भी नहीं रहता। इस कषाय की काल मर्यादा अधिक से अधिक पंद्रह दिन की है। पाक्षिक प्रतिक्रमण का विधान इसी हेतु से हैं। यद्यपि साधक को रात्रि एवं दिवस संबंधी दोषों की आलोचना प्रतिदिन कर लेनी चाहिए, नहीं तो पाक्षिक प्रतिक्रमण तो अवश्य ही करना चाहिए, जिससे प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न हो जाए। इस कषाय के उदय से आत्मा को देवगति का बंध होता हैं । इसके भी निम्न चार भेद हैं। 1. संज्वलन क्रोध :- शुद्ध स्वरुप प्राप्ति की साधना में जिन्हें अपने दोष पर रोष होता है, वह संज्वलन क्रोध है। श्रीमद् राजचंद्रजी ने 4.संज्वलन क्रोध अपूर्व अवसर में कहा है 'क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोध स्वभावता' - क्रोध के प्रति ही क्रोध हो। अपना दोष कंटक की तरह अपने को ही चुभने लगे वह संज्वलन क्रोध है। जैसे अरणिक मुनि ने अपनी भूल की प्रायश्चित में अनशन धारण किया। जल रेखा के समान यह क्रोध पानी में खींची हुई लकीर के समान हैं पानी में खिंची गयी लकीर जिस प्रकार आगे आगे चलने से पीछे पीछे नष्ट हो जाती है, वैसे ही यह क्रोध जल्दी शांत हो जाता है। 2. संज्वलन मान :- विनयशील, समझदार व्यक्ति कभी अहंकार करता भी हो तो वह विवेक तिनिशलता जागृत होने पर शीघ्र ही अहंकार को छोड़ देता है। संज्वलन मान के उदय से बाहुबलि को केवलज्ञान उपलब्धि के पश्चात् समवसरण में जाने का भाव बना था। इस मान वाला जीव सामान्य परिश्रम से नमाये जाने वाले बेंत के समान होता है, जो शीघ्र ही अपने आग्रह को छोड देता है। 3. संज्वलन माया :- कभी - कभी साधना हेतु भी माया होती है। महाबल मुनि ने मित्र मुनियों से अधिक तप करने की भावना से उन्हें पारणा करने दिया एवं स्वयं अस्वस्थता का बहाना लेकर तप किया। मायापूर्वक किया गया यह तप तीर्थंकर नाम कर्म के साथ - साथ स्त्रीवेद बंध का कारण बना। वे महाबल मुनि श्री मल्लि तीर्थंकर हए। संज्वलन माया बांस के छिल्के के समान स्व अल्पतम वक्र है। जैसे छीले जाते हुए बांस के छिलको का टेढापन विशेष प्रयत्न किये बिना मिट जाता है वैसे जो माया आसानी से अपने आप दूर हो जाती है वह संज्वलन माया है। 4. संज्वलन लोभ :- शीघ्रातीशीघ्र मुक्ति का आनंद मिले, यह संज्वलन लोभ है। जैसे गजसुकुमाल मुनि ने नेमीनाथ प्रभु के चरणों में दीक्षा अंगीकार करके सर्वप्रथम यह प्रश्न किया था “प्रभो ! जल्दी से जल्दी मुक्ति कैसे प्राप्त करुं ? !" स्तंभ संज्वलनामावुकवाय ज्वलन माया कपाय PROMOR AAAAAAAAAAAAAAAAAAAA R RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRIORAININARASIMIRRRRRRRRRRRRRRRRIAAAAAAAAAAAAAAAAAAMIRMIRE OURajaindibrary.orghin 74
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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