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________________ है। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का उद्देश्य यही है कि अविरति रुप अप्रत्याख्यानी कषाय का उदय न हो। इसके उदय से आत्मा मनुष्य गति का बंध करती है। इसके चार भेद हैं: - 3. प्रत्याख्यानीय क्रोध बालू रेखा के समान 1. प्रत्याख्यानावरण क्रोध सम्यग् दृष्टि साधक सांसारिक कार्यों को संक्षिप्त करके श्रावक जीवन के बारह व्रत स्वीकार करता है। उसके व्रत पालन में कोई बाधक बनता है तो उसे जो क्रोध आता है वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है । संयम लेने के लिए तत्पर मुमुक्षु आत्मा को जब उसके संयम में रुकावट पैदा होती है, उस समय उसे जो क्रोध आता है वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है। -- यह क्रोध रेत या बालु में पडी हुई रेखा के समान है, जो हवा के चलने पर कुछ समय में मिट जाती है। यह क्रोध भी कुछ समय में शांत हो जाता है। 2. प्रत्याख्यानावरण मान : साधना पद्धति में जो विशिष्ट राग का कारण होता है, वह प्रत्याख्यानावरण मान हैं। जैसे मांडवगढ के महामंत्री पेथडशाह को प्रभु - पूजा के समय राजा भी उन्हें मंदिर से बाहर नहीं बुला सकते थे, मंत्री पद भी इस शर्त के साथ पेथडशाह ने स्वीकार किया था। यह मान लकडी के खंभे के समान है। जैसे लकडी को नमाने के लिए तैल मालिश आदि करना पडता है, उसी प्रकार यह मान थोडे परिश्रम से नम्रता में परिवर्तित हो जाता है। 3. प्रत्याख्यानावरण माया :- • स्वयं धर्ममार्ग से जुडने के पश्चात् अन्य व्यक्तियों को जैसे चलते हुए बैल के मुत्र की धार जमीन पर टेढी - मेढी दिखती है, किंतु शीघ्र ही सुखकर समाप्त हो जाती है, वैसे ही प्रत्याख्यानी माया (वक्ता) भी अल्प प्रयास से सरलता में परिवर्तित हो जाती है। 3 प्रत्याख्यानीय माया कपाय धर्ममार्ग से जोडने के भाव प्रायः साधक को रहता है। ऐसे कार्य में इच्छित फल की प्राप्ति न होने पर साधक कई बार जो माया का आश्रय लेता है वह प्रत्याख्यानावरण माया कहलाती है। जैसे महामंत्री पेथडशाह से देवपुरी के श्रावकों ने निवेदन किया 'हे मांडवगढ श्रृंगार ! आपने अपनी नगरी को जिनालयों से सुशोभित किया है किंतु एक प्रभु मंदिर हमारी नगरी में भी बनवाइए ! " क्या बाधा है ? ऐसा प्रश्न होने पर स्पष्ट किया " हमारे नगर में अन्य धर्मावलम्बी हमारा जिनालय बनने में रुकावट देते है तथा पृथ्वीपति राजा उन्हीं की सलाह अनुसार निर्णय देता है | महामंत्री पेथडशाह ने देवपुर के मंत्री के साथ मैत्री संबंध बांधने के लिए मांडवगढ और देवपुर के मध्य एक अतिथिगृह, भोजनशाला आदि का निर्माण करवाया और उसका निर्माता देवपुर के मंत्री हेमू को घोषित किया गया। मंत्री हेमु की यश, कीर्ति चारों ओर फैलने लगी। दोनों नगर के मंत्रियों के मध्य मित्रता संबंध स्थापित हुआ। मंत्री हेमु के माध्यम से पेथडशाह ने देवपुर में एक देव- विमान तुल्य जिनालय का निर्माण करवाया। 4. प्रत्याख्यानावरण लोभ :- साधना - क्षेत्र में तीव्र गति से आगे बढने की भावना को प्रत्याख्यानी लोभ कहते हैं। बारह व्रत ग्रहण कर प्रतिमाएं धारण 73 मृदु वीरू स्तंभ श्री. प्रत्याख्यानीय मान कापाय - प्रत्याख्यानी लोभ www.jainelibrary.org.
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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