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FAS
RAKESAKASEAN
कटार
अस्थि
स्तंभ
2. अप्रत्याख्यानी मान :- सम्यग् दृष्टि सम्यग अर्थ में स्वाभिमानी होता है। स्व स्वरुप प्राप्ति के लिए उसे देव - गुरु - धर्म का राग होता है, उसका गौरव होता है वह अप्रत्याख्यानी मान है। सम्राट अकबर ने अन्य कवियों के समान कवि गंग को अपनी खुशामद करते नहीं देखा। एक दिन अपनी स्तुति करवाने हेतु एक समस्या पूर्ति पद दिया, “सब मिल आस करो अकबर की....। कवि गंग ने दोहे की रचना करते हुए अंत में कह दिया जिस प्रभु पर विश्वास नहीं, वह सब मिल आस करो अकबर की'। सम्राट के रुष्ट होने की भी चिंता कवि गंग ने नहीं की।
जिस प्रकार हड्डी को नमाने के लिए कठिन परिश्रम करना पडता है, तेल आदि का मर्दन करना पडता है ठीक उसी प्रकार यह मान अत्यंत मेहनत व पुरुषार्थ से दूर होता
2अप्रत्याख्यानायमान कषाय
3. अप्रत्याख्यानी माया :- सत्य
2 अप्रत्याख्यानीयमाया कषाय पण स्वरुव का ज्ञान होने पर तत्व - बोध हो
जाता है। किंतु कभी कभी न्याय - नीति हेतु अन्याय को समाप्त करने के भाव से असत्य का आश्रय लिया जाता है वह अप्रत्याख्यानी माया है। महाभारत युद्ध में क्षायिक सम्यक्त्वी श्री कृष्ण ने द्रौणाचार्य को परास्त करने के लिए असत्य भाषा का आश्रय युधिष्ठिर को दिलाया। अश्वत्थामा हतः शब्द स्पष्ट उच्चारण करके अस्पष्ट रुप से नरो व कुंजरो वा बोला “ द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र की मृत्यु समझकर शस्त्र त्याग किया।" भेड के सींग की वक्रता महाप्रयत्न से दूर होती है, अप्रत्याख्यानी आत्मा अति परिश्रम से सरल परिणाम
को प्राप्त होती है। 4. अप्रत्याख्यानी लोभ :- सम्यग्दृष्टि की कामना जगत - कल्याण की होती है। साधक में धर्म-वात्सल्य उमडता है। तीर्थंकर बनने योग्य आत्मा इस अवस्था में भावना करती है 'सवि जीव करुं शासन रसी' जगत के समस्त जीवों का मैं कल्याण कर दूं, उन्हें शाश्वत सुख दूं। क्षायिक सम्यक्त्वी श्री कृष्ण वासुदेव ने अपने राज्य में घोषणा की थी, "जो भी नगरवासी प्रभु नेमिनाथ के चरणों में संयम ग्रहण करें, उसके कुटुम्ब पालन का उत्तरदायित्व मेरा है।" वे अपने निकटस्थ प्रत्येक व्यक्ति को दीक्षा अंगीकार हेतु प्रेरणा देते थे। यह अप्रत्याख्यान लोभ है।
गाडी के पहिये के कीट के समान यह लोभ अति कठिनता से दूर होता है। इस कषाय के उदय से जीव तिर्यंच गति का बंध करता है। * प्रत्याख्यानावरण कषाय :- जिसके उदय से जीव को सर्वविरति चारित्र (साधु धर्म) की प्राप्ति में रुकावट आती है, अर्थात् जो कषाय हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह रुप महापापों के सर्वथा त्याग में बाधक बनता है। उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। इस कषाय की अधिकतम काल स्थिति चार मास की है। यह कषाय चार महीने से अधिक उदय में नहीं रह सकता। इस काल में साधक अपने दोष का प्रायश्चित एवं अन्य के अपराध को क्षमादान देता
अप्रत्याख्यानी लोभ
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