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________________ 3. अनंतानुबंधी माया :- अपने स्वरुप से भिन्न स्वरुप गया कषाय मानना अर्थात् शरीर के प्रति "मैं" का भाव होना अनंतानुबंधी माया है। यह बांस की जड़ों के समान है, जो कभी सीधी या सरल नहीं होती। इसी प्रकार इस कषाय से युक्त जीव सरल नहीं बनता है। 1.अनन्ताजुबंधी लोभकषाय 4. अनंतानुबंधी लोभ :- जीवन निर्वाह के लिए वस्तु पर ममत्व बुद्धि रखना अथवा पर में सुख मानकर उसकी अभिलाषा करना अनंतानुबंधी लोभ है। जब देह को मैं स्वरुप जीव मानता है, तब वह जीने की आकांक्षा, इष्ट पदार्थों के संयोग की कामना, प्रिय व्यक्तियों से संबंध बनाने की भावना रखता है। इसे किरमिची के रंग की उपमा दी गई है। जिस प्रकार किरमिची का रंग कभी नहीं मिटता, उसी प्रकार अनंतानुबंधी लोभ का धारक वस्तु के प्रति ममत्व या लालसा कभी नहीं छोडता। * अप्रत्याख्यानी कषाय :- जो कषाय आत्मा को देशविरति चारित्र (श्रावक धर्म) प्राप्त करने में बाधा पहुंचाए, जिसके कारण जीव अल्पतम पच्चक्खाण भी नहीं कर पाता है, अथवा त्याग के परिणाम में जो कषाय बाधक बनता है, उसे अप्रत्याख्यानी कषाय कहते हैं। यह कषाय आत्मा को पापों से विरत नहीं होने देता। अप्रत्याख्यानी कषाय में मिथ्यात्व दूर होता है और सम्यक्त्व प्रकट होता है, जो आत्मा को श्रद्धावान् बनाकर सच्चे देव - गुरु - धर्म की पहचान कराता है। इस कषाय के उदय से जीव तिर्यंच गति का बंध करता है। इस कषाय की काल मर्यादा अधिक से अधिक एक वर्ष की है। यदि यह कषाय एक वर्ष से अधिक रह जाए तो अनंतानुबंधी में परिणत हो जाता है। इस काल मर्यादा को ध्यान में रखते हुए ही जैन परंपरा में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की व्यवस्था है। वर्ष भर में हुए समस्त वैर - विरोध, द्वेष - रोष आदि को समाप्त करना, क्षमा आदान - प्र करना, पूर्व कषाय संस्कारों को क्षय करना इस प्रतिक्रमण का उद्देश्य होता है। इसके चार भेद इस प्रकार है। 1. अप्रत्याख्यानी क्रोध :- सम्यग् दर्शन प्राप्त होने पर आत्म तत्व का बोध होता है। जगत् के समस्त जीवों के प्रति आत्मीय अप्रत्याख्यानीय क्रोध भाव उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति में किसी के प्रति अन्याय होने पर जो क्रोध होता है वह अप्रत्याख्यानी क्रोध है। सम्यग्दृष्टि को देव - गुरु - धर्म का राग होता है। अतः देव - गुरु - धर्म का अपमान करने वाले के प्रति जो क्रोध आता है वह अप्रत्याख्यानी मिट्टी में पड़ी दरार के समान क्रोध है। जैसे वस्तुपाल महामंत्री ने राजा के मामा द्वारा एक बाल मुनि को थप्पड मारने पर उसका हाथ कटवा दिया था। पृथ्वी में आई हुई दरार जिस प्रकार पानी के संयोग से फिर भर जाती है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानी क्रोध की आग विशेष परिश्रम तथा उपाय के द्वारा मिट जाती है। 71 www.jainelibrary.org.
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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