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योगशास्त्र में श्री हेमचन्द्राचार्य ने कहा है - मान : विनय, श्रुत और सदाचार का हनन करने वाला है। धर्म अर्थ और काम का घातक है। विवेक रुपी चक्षु को नष्ट करने वाला है। 3. माया :- कपटभाव (वक्रता), मन - वचन - काया की प्रवृत्ति में एक रुपता का न होना, कथनी और करनी में असमानता होना माया है। कहा जाता है कि जिस आत्मा में माया (वक्रता) है उस आत्मा में धर्म नहीं टिक सकता। जैसे बंजरभमि में बोया बीज निष्फल जाता है या मलिन चादर पर चढाया केसरिया रंग व्यर्थ हो जाता है। ठीक वैसे ही मायापूर्वक किया गया धर्म कार्य भी निष्फल होता है। जितनी मात्रा तक वह माया करता है, उतनी मात्रा तक उसकी साधना निरर्थक है। उसका संसार परिभ्रमण चालू रहता है। 4. लोभ :- बाद्य पदार्थों के प्रति ममत्व (मेरापन) एवं तृष्णा की बुद्धि लोभ है। यह कषाय सब पापों का बाप माना जाता है। लोभ का विस्तार आकाश के समान अनंत है यह एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसके वशीभूत होकर व्यक्ति पापों के दल - दल में पांव रखने के लिए तैयार हो जाता है। इसलिए शास्त्रकार ने इसे सर्वविनाशक कहा है। दशवैकालिक सत्र में आचार्य स्वयंभवसरिजी ने कहा है क्रोध से प्रीति. मान से विनय. माया से मित्रता का नाश होता है, किंतु लोभ तो सब गुणों का विनाश कर देता है। इसलिए इसे पाप का बाप कहा जाता है।
ये चारों कषाय प्राणी के चित्त को कसैला बना देते हैं । सभी जीवों के कषाय समान रुप से उदय में नहीं आते, इसलिए इन चारों कषायों के पुनः चार प्रकार बताये गये हैं। जो क्रमशः अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी तथा संज्वलन के नाम से कहे जाते हैं। इनके लक्षण ये है:* अनंतानुबंधी कषाय :- जो कषाय कर्मोंका पुनः पुनः बंध करवाने के माध्यम से अनंत संसार का अनुबंध कराने वाले है उन्हें अनंतानुबंधी कहते हैं। इस कषाय के प्रभाव से आत्मा अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करती है। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है, जीवन पर्यन्त बना रहता है और मुख्य रुप से नरक में ले जाता है। इसके चार भेद हैं 1. अनंतानुबंधी क्रोध :- आत्मा के प्रति अरुचि भाव रखना, अनंतानुबंधी
१.अनन्तानुबन्धीक्रोध क्रोध है। अज्ञानावस्था में शरीर में अहंबुद्धि तथा पदार्थों में ममत्वबुद्धि होती है। शरीर, स्वजन, संपत्ति आदि में ममत्व भाव तीव्र होता है। प्रिय संयोगों की प्राप्ति में बाधक तत्व अप्रिय लगता है। स्वार्थ के ठेस लगने पर जो क्रोध पैदा होता है वह अनंतानुबंधी क्रोध है। यह क्रोध पर्वत में पड़ी हुई दरार के समान
है। जैसे पर्वत के फटने से पड़ी हुई दरार का जुडना पर्वत में पड़ी अत्यंत कठिन है उसी प्रकार अनंतानुबंधी क्रोध अथक
दरार के समान परिश्रम व अनेक उपाय करने पर भी शांत नहीं हो पाता।
कठोर वचन, परस्पर वैर इत्यादि किसी भी कारण से उत्पन्न क्रोध ऐसा भंयकर होता है जो एक जिंदगी में नहीं शैल
अनेक जन्मों तक वैर - परंपरा के रुप में जारी रहता है। 2. अनंतानुबंधी मान :- आत्मज्ञान के अभाव में व्यक्ति शरीर को मैं रुप मानकर उसका अभिमान करता है। पर के आधार पर अपना मूल्यांकन करना अनंतानुबंधी मान है। यह मान पत्थर के स्तंभ (खम्भे) के समान है। अथवा वज्रस्तंभ के समान है। ऐसा स्तंभ टूट जाता है पर किसी भी तरह झुकता नहीं। इसी प्रकार अनंतानुबंधी मान वाली आत्मा अपने जीवन में कभी नम्र नहीं बनती।
अति कठोर
स्तंभ
अनन्नानविधापानकार
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