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ते हुए पुनः मोहनीय कर्म का बंध करता है।
* दर्शन मोहनीय कर्म के 3 भेद
1. मिथ्यात्व मोहनीय जिसके उदय से जीव को तत्व पर अश्रद्धा हो, अथवा विपरीत श्रद्धा हो । तत्वों के यथार्थ स्वरुप की रुचि ही न हो उसे मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। इस कर्म के उदय से जीव वीतराग धर्म के सर्वप्रणीत मार्ग से उन्मुख रहकर उसके प्रतिकूल मार्ग पर रुझान (आस्था) रखता है। वह सन्मार्ग से विमुख रहता है, जीव अजीव आदि तत्वों के उपर श्रद्धा नहीं करता है और अपने हित अहित का विचार करने में असमर्थ रहता है। हित को अहित और अहित को हित समझता है।
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2. मिश्र मोहनीय :- इसका दूसरा नाम सम्यक्त्व - मिथ्यात्व मोहनीय है। जिस कर्म के उदय से जीव को जिन कथित तत्व पर श्रद्धा या अश्रद्धा का मिला हुआ भाव हो, डंवाडोल मनःस्थिति रहे, उसे मिश्र मोहनीय कहते हैं। 3. सम्यक्त्व मोहनीय :- जिसके उदय से सम्यग् दर्शन की प्राप्ति होने पर भी नव तत्वों पर श्रद्धा होते हुए भी क्षायिक समकित की तुलना में वह कमजोर होती है। जो एक तरह से अतिचार रुप है। यह कर्म जीव को क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति में बाधा पहुंचाता है। यह सम्यक्त्व का नाश तो नहीं करती किंतु चल मल अगाढ दोष लगाकर उसे मलीन करती है।
* चारित्र मोहनीय कर्म के 25 भेद
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मुख्य भेद - 2 (1. कषाय मोहनीय 2. नोकषाय मोहनीय) कषाय मोहनीय- 16 नोकषाय मोहनीय 9 = 25 भेद * कषाय मोहनीय :- कष यानी जन्म मरण रुप दुःखभरा संसार और आय अर्थात प्राप्ति या वृद्धि अर्थात् जिस कर्म से संसार की वृद्धि हो उसे कषाय कहते हैं । “तत्वार्थ राजवार्तिक' में कषाय मोहनीय की परिभाषा देते हुए बताया गया है, “चारित्र परिणाम कषणात् कषाय" अर्थात जिसके कारण चारित्र के परिणाम क्षीण होते है, उसे कषाय कहते हैं। जिस कर्म के कारण क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों की उत्पत्ति हो उसे कषाय- मोहनीय कहते हैं। यह कषाय जीव को संसार के साथ एकत्व कराने में तथा आत्मा के मूल गुणों से दूर रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कषाय मोहनीय के 16 भेद है जिनका संक्षेप में निरुपण करते हैं। मूल रूप में कषाय के चार भेद है और उनकी तत् प्रकारक - खासियत के आधार पर प्रत्येक कषाय के चार भेद होने से कषाय के 16 भेद प्ररुपित किये गये हैं। कषाय केमूल 4 भेद इस प्रकार हैं:
1. क्रोध:- समभाव को भूलकर आवेश से भर जाना दूसरों पर रोष करना, अपने और दूसरे के अपकार या उपघात आदि करने के क्रूर परिणाम लाना क्रोध है ।
क्रोध एक ऐसा आत्मा के अध्यवसायों का विकार है, जिसके उत्पन्न होने पर शारीरिक मानसिक संतुलन बिगड जाता है। शरीर में अनेक परिवर्तन होते है, जैसे- चेहरे का तमतमाना, आंखे लाल होना, भुकृटि चढाना, होंठ फडफडाना, जीभ लडखडाना, वाक्य व्यवस्था स्खलित होना इत्यादि । क्रोधावस्था में थायरायड ग्लैण्ड आदि ग्रंथियां समुचित कार्य नहीं करती, जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है। हृदयगति (Heart Beat), रक्त चाप (Blood Pressure) तथा नाडी की गति बढ़ जाती है। पाचन क्रिया में विघ्न आता है, रुधिर का दबाव बढता है।
मनोविज्ञान की मान्यता है, तीन मिनट किया गया तीव्र क्रोध नौ घंटे कठोर परिश्रम करने जितनी शक्ति को समाप्त कर देता है। जैसे दिन भर चलने वाली हवा से घर में उतनी मिट्टी नहीं आती, जितनी धूल पांच मिनट की आंधी में आ जाती है, वैसे ही पूरे दिन भर की भावदशा से इतने कर्म परमाणु आत्मा में नहीं आते - जितने पांच मिनट के क्रोध में आ जाते है।
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2. मान :- गर्व, अभिमान, अहंकार, मगरुरी (Pride) आदि झूठे आत्म दर्शन को मान कहते हैं। यह एक ऐसा मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं अन्य को निम्न हल्का समझने की वृत्ति रखता है।
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