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________________ मोहनीय कर्म कर्म आत्मा के सभी तरह के सम्यक्त्व और चारित्रगुण का घात करता है अथवा जो कर्म जीव को स्व परविवेक में तथा स्वरुप रमण के विषय में विपरीतता लाता है तथा बाधा पहुँचाता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । आठ कर्मों में यह सबसे अधिक शक्तिशाली है। अन्य सात कर्म प्रजा है तो मोहनीय कर्म राजा है। इसके प्रभाव से वीतरागता प्रकट नहीं हो पाती। इस कर्म की तुलना मदिरा पिए हुए शराबी से की गई है। जैसे मदिरा के नशे में व्यक्ति सुध-बुध खो बैठता है, जहाँ-तहाँ गिर जाता है, हित-अहित को नहीं जानता, बोलने का भी विवेक नहीं और क्रिया व्यवहार का भी विवेक नहीं रखता, अपना नियंत्रण खो देता है, ठीक वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा अपने हिताहित का, कर्तव्य - अकर्तव्य का, सत्य असत्य का और कल्याण - अकल्याण का भान भूल जाती है। धर्म-अधर्म का विवेक नहीं कर पाती । वह संसार के विकारों में उलझ जाती है, हिताहित को कदाचित जान-समझ भी ले किन्तु इस कर्म के उदय से आचरण नहीं कर पाती। यह कर्म आत्मा के आनंदमय शुद्ध स्वरुप को आवृत कर देता है जिससे आत्मा इन्द्रियों के क्षणिक वैषयिक सुखों को ही सुख समझती है। वह अनुभव करती है। यह कर्म आत्मा केमूलभूत क्षायिक सम्यक्त्व गुण और यथाख्यात चारित्र गुण को प्रकट नहीं होने देता है। मोहनीय कर्म के कुल भेद - 28 1. दर्शन मोहनीय * मोहनीय कर्म के भेद मुख्य भेद - 2 2. चारित्र मोहनीय 1. दर्शन मोहनीय: आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करने वाले कर्म को दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं। यह ध्यान में कि दर्शनावरणीय कर्म के "दर्शन" शब्द और दर्शन मोहनीय कर्म के दर्शन शब्द के अर्थ बिलकुल भिन्न भिन्न हैं । दर्शनावरणीय कर्म के दर्शन शब्द का अर्थ किसी पदार्थ का सामान्य बोध (ज्ञान) है। जबकि दर्शन - मोहनीय कर्म के दर्शन शब्द का अर्थ श्रद्धा या प्रतीति है। जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना दर्शन है। अर्थात् तत्वार्थ श्रद्धा को दर्शन कहते हैं। यह आत्मा का गुण है। इसमें विकलता पैदा करने वाला या आवृत करने वाला कर्म को दर्शन मोहनीय कहते हैं। इस कर्म के उदय से जीव सुदेव, सुगुरु, सुधर्म और आत्मस्वरुप के प्रति सही श्रद्धा नहीं कर पाता। सही को गलत और गलत को सही मानता है। ऐसे समय में उसकी रुचि और श्रद्धा लौकिक और सांसारिक लाभ देने वाले चमत्कारी देवों के प्रति, हिंसक, और हिंसा आदि जीवन जीनेवाले एवं हिंसा आदि में धर्म बतानेवाले गुरुओं के प्रति तथा सांसारिक पदार्थों के भोग - उपभोग की ओर प्रेरित करने वाले धर्म के प्रति प्रगाढ रुप से होती है। यही नहीं दर्शन मोहनीय कर्म के कारण आत्मा पर पदार्थों में रुचि रखती है । जैसे स्त्री- पुत्रादि मेरे हैं, या धन - धान्यादि संपत्ति मेरी है, शरीर और भोगों में "मैं" और "मेरेपन" की कल्पना करती हुई आत्मा उनके इष्ट - अनिष्ट में ही स्वयं के इष्ट - अनिष्ट का भाव रखती है। उनका उपभोग करने में ही सुख मानती है और उनके वियोग में दुख मानती है। इस प्रकार के मिथ्या श्रद्धा रुप मोह को दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं। 2. चारित्र मोहनीय :- आत्मा के स्व भाव में रमण करना चारित्र है। जो कर्म इस चारित्र गुण का घात करता है, उसे चारित्र मोहनीय कर्म कहते हैं। यह कर्म आत्मा के चारित्र गुण को मूर्च्छित कर उसमें विपरीतता लाता है। इसके कारण आत्मा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, साधु - गृहस्थ धर्म आदि सदाचार के मार्ग पर चल नहीं सकती। इतना नहीं चारित्र मोहनीय कर्म आत्मा को इतना पराधीन और मूढ बना देता है कि वह पर भाव को स्व-भाव मान बैठता है। व्यक्ति क्षमा, विनय, सरलता, संतोष आदि आत्मा के स्वभाव को छोडकर क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पर भावों में For Personal 68 Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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