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________________ आमवाजाने वेषधारी देवों को अपना रुप दिखाने हेतु राज्य सभा में आमंत्रित किया था। जब देव राजसभा में सिंहासनासीन सनतकुमार चक्रवर्ती के पास आये तो देखकर दंग हो गये। देवों ने कहा - अब तुम्हारा रुप पहले जैसा नहीं रहा, आपका शरीर रोगग्रस्त हो गया है। असंख्यात कीटाणु के साथ सात - सात महारोग इसमें भरे पडे हैं। इसलिए इस पर गर्व मत करो। देवों के कहने पर राजा ने पात्र में थुका। थूक में बिलबिलाते कीडे दिखाई दिये और दुर्गन्ध फैल रही थी। उसी पल उन्हे शरीर की अशुचि का भान हुआ और शरीर से वैराग्य हुआ। शरीर में उत्पन्न हुई पीडाओं को समभावपूर्वक सहन करने से वे सिद्धमुक्त हो गए। 7. आश्रव भावना :- मन, वचन और काया के शुभाशुभ व्यापार द्वारा जीव जो शुभाशुभ कर्म ग्रहण करते हैं, उसे आश्रव कहते हैं। आत्मा में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग रुप आश्रव द्वारों से निरंतर नूतन कर्मों का आगमन होता रहता है। इसी कर्मबंध के कारण आत्मा के जन्म मरण का चक्र चलता रहता है। इस प्रकार का चिंतन करना आश्रव भावना है। कहा जाता है : दिन रात शुभाशुभ भावों में मेरा व्यापार चला करता। मानस वाणी और काया से, आश्रव का द्वार खुला रहता।। मेरे दिन रात शुभ - अशुभ भाव चलते ही रहते है अतः मन, वचन, काया रुपी द्वार कर्मों के आने के लिए खुले ही रहते हैं। जिस प्रकार चारों ओर से आते हुए नदी, नालों और झरनों द्वारा तालाब भर जाता है, इसी प्रकार आश्रव द्वारा आत्मा में कर्म रुपी जल आता है और इस कर्म से आत्मा मलीन हो जाती है। कर्मों का आगमन कितने द्वारों से होता है और इनके आगमन के कौन | कौन से कारण तथा उससे कैसा फल परिणाम मिलता है आदि विषयों पर चिंतन किया जाता है। इस प्रकार आश्रव - भावना का चिंतन करने से जीव अव्रत आदि का कुपरिणाम समझ लेता है, इनका त्याग कर व्रत ग्रहण करता है, इन्द्रिय और कषायों का दमन करता है, योग का निरोध करता है और क्रियाओं से निवृत होने का प्रयत्न करता है। चंपानगरी के पालित श्रावक का पुत्र समुद्रपाल एक दिन अपने महल के झरोखे में बैठा हुआ नगर के दृश्य देख रहा था। यकायक उसकी दृष्टि एक मृत्युदंड के लिए ले जाते हुए एक चोर पर पडी। चोर को बंधन में पडा देखकर उसने चिंतन किया की अशुभ कर्म के उदय से यह चोर बंधन में पडा है। अशुभ कर्मों का उदय आएगा तो मझे भी कौन छोडेगा. यह कर्मोदय आश्रव पर निर्भर है। इस प्रकार आश्रव के परिणामों पर गहन समुद्रपाल को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। अतः उसने विरक्त होकर दीक्षा अंगीकार कर ली। तत्पश्चात् तप - संयम की आराधना कर मुक्ति को प्राप्त हुए। 8. संवर भावना :- संवर भावना में आश्रव द्वारों को बंद करने के सम्यक्त्व तथा व्रतादि साधनों - उपायों पर चिंतन - मनन किया जाता हैं । कहा जाता है : शुभ और अशुभ की ज्वाला से झुलसा है मेरा अन्तस्तल। शीतल समकित किरणें फूटे संवर से जागे अतबल || आत्य इकहर चिंतन RRRRRReOMMIRMIRROR 3000 R RRRRRRRRRRRRRRR....................eeeeeeeeeaaa rupindiangrivatetuseroniyo 36 www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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