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________________ अन्यत्व भावना तल तेल धान छिलके फल गुठली आत्मा न काटा जा सकता है न जलाया जा सकता है। है, नाशवान है अस्थिर है। क्षणभंगुर है। मैं तो आत्मा हूँ, चेतन हूँ, शाश्वत हूँ। शरीरादि में मोह - आसक्ति रखना हितकारी नहीं है। जिस प्रकार तिल से तेल और खली, धान से छिलका और बीज, फलो से गुठली और रस अलग हो जाता है उसी प्रकार यह शरीर और आत्मा भिन्न - भिन्न है। कहा जाता है : मेरे न हुए ये मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ। निज में पर से अन्यत्व लिए, निज सम रस पीने वाला हूँ। न कभी संयोग मेरे हुए, न कभी मैं उनका हुआ, मैं सभी से भिन्न हूँ, अखण्ड हूँ निराला हूँ, निज पर का भेद करने पर निज में समभाव के रस को पीने वाला हूँ। पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण मृगापुत्र जब साधु बनने के लिए तत्पर हुआ तब उसके माता - पिता ने ममत्व भरी बातें कहकर उसे साधुत्व अंगीकार करने से रोकना चाहा। मृगापुत्र ने माता - पिता से अन्यत्व भावना से अनुप्रेरित होकर कहा “यहां कौन किसका सगा - संबंधी और रिश्तेदार है" वे सभी संयोग निश्चित ही वियोग रुप और क्षणभंगुर हैं माता - पिता, भाई - बहन, पुत्र - स्त्री, धन, दुकान, मकानादि यहां तक कि यह शरीर भी अपना नहीं है। कभी न कभी इन सबको छोडकर अवश्य जाना पड़ेगा। यदि इन विषय भोगों को जीव नहीं छोडता तो ये विषय भोग स्वयं जीव को छोड देते हैं। इस तरह माता पिता के प्रश्नों का उत्तर मृगापुत्र ने अन्यानुप्रेक्षा की दृष्टि से दिया। माता - पिता की आज्ञा प्राप्त कर मृगापुत्र ने मृग की तरह अकेले बनवासी रहकर संयम की आराधना करकेमोक्ष को प्राप्त किया। 6. अशुचि भावना :- यह शरीर अशुचिमय है। शरीर रक्त - मांस - मज्जा - मल मूत्र आदि घृणित पदार्थों से बना हुआ पिण्ड हैं माता के गर्भ में अशुचि पदार्थों के आहार द्वारा इस शरीर की वृद्धि हुई। उत्तम स्वादिष्ट और रसीले पदार्थों का आहार भी इस शरीर में जाकर अशुचि रुप से परिणत होता है। इस देह को कितना भी सुगन्धित पदार्थों से युक्त जल से स्नान कराया जाए, चंदन, केशरं आदि उत्तमोतम पदार्थों का लेप किया जाए, सभी द्रव्य दुर्गंध रुप में रुपान्तरित हो जाते हैं। कहा जाता है : जिसके श्रृंगारों से मेरा, यह महंगा जीवन धुल जाता। अत्यंत अशुचि जड काया से इस चेतन का कैसा नाता ? मेरा यह अनमोल जीवन जिस देह को संवारने में नष्ट हो रहा है, वह काया तो अत्यंत अशुद्ध है और उस जड काया से मुझ चेतन का कोई संबंध भी नहीं। ऐसे अशुचिमय शरीर के प्रति क्या राग करना? इस प्रकार इस शरीर की अशुचिता का चिंतन करना अशुचि भावना है। यह भावना सनतकुमार चक्रवर्ती ने भायी थी। सनतकुमार चक्रवर्ती बहुत ही रुपवान थे। उन्हें अपने शरीर के सौंदर्य पर गर्व था। ब्राह्मण वेषधारी देव के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर वे और भी अहंकारग्रस्त हो गये थे और उन्होंने ब्राह्मण RARIAARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE RRRRRRRRRRRRRRoom. n omenstitutionnieroine 35 mobiwajalranditayporg
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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