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________________ और मैं दीर्घकाल तक संसार में आस्रव भावना शुभ और अशुभ की ज्वाला से मेरा अंतर जल रहा है। अपराधी को देखकर कर्म (आम्रव) सम्यग्दर्शन रुपी किरणें ही इन शुभाशुभ भावों को शांत करके मेरे फल पर चिन्तन करता समदपाल। अंतरबल को जागृत कर सकती है। इस प्रकार के चिंतन से मनुष्य में धर्मपूर्वक तप, समिति, गुप्ति तथा परिषह जय आदि से सद् आचरण की और प्रवृत्ति बढती है, जिससे कर्मों के आगमन के द्वार बंद हो जाते है, अर्थात् कर्मों का संवर होने लगता है। हरिकेशी मुनि ने इस भावना का चिंतन किया था। उन्होंने ब्राह्मणों को उपदेश दिया कि - "हिंसामय यज्ञ का त्याग करके सच्चे विषय भोगों से कर्म बन्धन यज्ञ का स्वरुप समझो। जीव रुप कुंड में अशुभ कर्मरुपी ईंधन को और अधिक सुदृढ़ हो जायेंगे तपरुपी अग्नि के द्वारा भस्म करो। हिंसामय यज्ञ तो आसव यज्ञ है, जन्म-मरण करता रहूँगा। पापबंध का कारण है। अतः उसे छोडकर संवर रुप पवित्र दयामय यज्ञ का अनुष्ठान करो।" यह संवर भावना का उदाहरण है। 9. निर्जरा भावना :- बद्ध कर्मों को नष्ट करने के स्वरुप, कारण तथा उपाय आदि का चिंतन करना निर्जरा भावना है। निर्जरा का अर्थ है - जर्जरित करना, पूर्वबद्ध कर्मों का धीरे - धीरे क्षय होते जाना। जो निर्जरा संवर पूर्वक होती है, वही आत्मा के लिए उपयोगी है। जिस निर्जरा के साथ नवीन कर्म का बंध नहीं होता, वहीं निर्जरा आत्मा को कर्मों से मुक्त कर सकती है। ऐसी निर्जरा तप आदि के द्वारा होती है। तप करते हुए परिषह व उपसर्ग आने पर दुःख की अनुभूति नहीं होती है, अपितु आनंद की अनुभूति होती है। जीव उसे ज्ञानपर्वक समभाव के साथ सहता है. तथा कषायों पर विजय भी प्राप्त करता है। कहा जाता है : फिर तप की शोधक वन्हि जगे, कर्मों की कडिया टूट पडे। सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पडे ।। फिर सम्यक् तप रुपी शुद्ध अग्नि से कर्म नष्ट होते है और आत्म प्रदेशों में रहे आत्मा के शाश्वत अनंत गुण पूर्ण रुप से प्रकट होते हैं। राजगृह निवासी अर्जुनमाली प्रतिदिन 6 पुरुष और 1 स्त्री यों सात प्राणियों का घात करता था। लगभग 1141 व्यक्तियों की हत्या कर डाली थी। परंतु सुदर्शन सेठ के निमित्त से वह प्रभु महावीर स्वामी के शरण में पहुंच गया व दीक्षा अंगीकार कर ली और यावज्जीवन बेले - बेले तप करने की प्रतिज्ञा ग्रहण की। पारणे के दिन नगरी में भिक्षा के लिए जाते तो उन्हें देखकर लोग ताडना - तर्जना, विविध प्रकार की यातनाएं देते थे किंतु अर्जुन अनगार समभाव, शांति और धैर्य से सहन करते हुए इस प्रकार चिंतन करते थे, मैंने तो इनके सम्बंधियों MAHARAMMARRAIMIMAGE Jain Education international MMMMMMMERMIRRIMERIMAR RRAIMIRMIRMIRRRRRRRRRRRRRRAIMARARIA For personazvae Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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