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पूर्वाचार्यों ने इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा है, लक्ष्मी बिजली की चमक के समान चंचल है। अधिकार पतंग के समान अस्थायी है, आयु हाथ की अंजली में जल की तरह प्रतिपल घटती जाती है और काम - भोग इन्द्रधनुष के समान उत्पन्न होने के साथ ही थोडी देर में नष्ट हो जाते हैं। जिसके अन्तस्थल में यह बात जम जाए कि धन, धान्य, योवन, परिवार, इष्ट पदार्थों का संयोग आदि सब अनित्य है तो वह इनके नष्ट या क्षीण होने पर दुःखी नहीं होता। वह दुःख को जानता है पर दुःख को भोगता नहीं । कहा जाता है
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भव वन में जी भर घूम चुका, कण कण को जी भर भर देखा,
मृग सम मृग तष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ।
झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएं, तन जीवन यौवन अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझाएं।
भव रुपी वन में मैंने जी भर घूमकर देखा कि संसार सुख मृग तृष्णा के समान है जो दिखता है परंतु प्राप्त नहीं होती। अतः इस जगत से किसी प्रकार की आशा करना व्यर्थ है, यहां सभी संयोग अस्थिर है, यह तन- धन यौवन क्षण भर में नाश होने वाले हैं। इस प्रकार की भावना सम्राट श्री भरत चक्रवर्ती ने भायी थी। 2. अशरण भावना :- अशरण - भावना में यह विचार करना अनिवार्य है कि इस संसार में हमारी आत्मा का रक्षक उसे शरण प्रदान करनेवाला कोई नहीं है। रोग, आपत्ति, संकट या मृत्यु आने पर संसार का कोई भौतिक साधन अथवा स्नेही, स्वजन, संबंधी आदि हमें उन दुःखों से एवं विपत्तियों से बचा नहीं सकता। कहा जाता है -
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सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या ? अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ?
कोई सम्राट हो अथवा महाबल हो, परंतु मरण के समय कौन टाल सकता है, न कोई शरण दे सकता है। दुःख, आपत्ति एवं भय से परिपूर्ण इस संसार में अरिहंत परमात्मा एक मात्र शरणभूत है। उनकी शरण अंगीकार करने वाली आत्मा अपने अजर, अमर, अविनाशी, पूर्णानन्दमय स्वरुप को अवश्य प्राप्त कर सकती है।
संसार की अशरणता तथा धर्म
की शरणता समझने के लिए अनाथी मुनि का प्रसंग अत्यंत प्रेरक है। राजगृही के उद्यान में एक मुनिवर ध्यानमग्न थे। उनका नाम था अनाथी। उनकी देह अत्यंत सुकोमल थी। ऐसे समय में महाराजा श्रेणिक का वहां आगमन हुआ । वे मुनिवर को वंदन कर खडे रहे।
ध्यान पूर्ण होने पर तत्व चिंतन में मगन मुनिराज से राजा श्रेणिक ने पुछा यौवनावस्था में आपको वैराग्य का स्पर्श किस प्रकार हुआ ? मुनिराज ने उत्तर दिया :- " अशाता वेदनीय कर्म के उदय से मैं बीमार हो गया। अनेक उपचार करने पर भी रोग दूर नहीं हुआ। उस समय मैंने मन ही मन
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इस संसार में शरणदाता कोई नहीं है। मैं संयम पालन करके, अपना शरणदाता स्वयं बनूँगा।
अशरण भावना
अशरण भावना का चिन्तन करते कौशाम्बी मठ के पुत्र (अनाथ मति)
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