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तिथंच संसार
मनुष्य संसार
नरक संसार
देव संसार
संकल्प किया की - यदि यह रोग दूर हो जाय तो मैं दूसरे ही दिन दीक्षा (चारित्र) अंगीकार करुंगा।
___ इस संकल्प के पश्चात् एक ऐसी घटना हुई जिससे मेरे नेत्र खुल गये। इस संसार में जीव को सच्ची शरण केवल धर्म की है। इस त्रिकाला बाधित सत्य में मेरा विश्वास अडिग हो गया, अखण्ड हो गया। घटना इस प्रकार है सुनिये :- मेरी देह रोगों एवं असह्य दाह - वेदना से ग्रस्त एवं त्रस्त थी । फिर भी मेरे प्रति अप्रतिम वात्सल्य की वृष्टि करने वाले मेरे माता - पिता - स्नेही स्वजन एवं मेरी प्राण - प्रिया (प्रियतमा) में से कोई भी न तो मेरा रोग, मेरी पीडा मिटा सके न वे मेरा जरा सा दुःख बांट सके।
सचमुच, मेरे तथाकथित समस्त संबंधी उपस्थित थे। फिर भी मैं अशरण था, अनाथ था। इस अनुभव के पश्चात मुझे यह सत्य तुरंत हृदयसात् हो गया कि संसार में कोई किसी का सगा नहीं है, सगा है तो एक मात्र केवली - कथित धर्म है। अतः रोग का शमन होते ही मैंने चारित्र अंगीकार किया। लोग मुझे अनाथी मुनि के नाम से पहचानते हैं। मुनिराज की कथनी सुनकर महाराजा श्रेणिक की जिन भक्ति (धर्म के प्रति श्रद्धा) प्रगाढ हो गई। और उसी समय उन्होंने सम्यक्त्व का उपार्जन किया। 3. संसार भावना :- इस संसार में जीव अनादि काल से जन्म - मरण आदि विविध दुखों को सह रहा है। कर्म के कारण आत्मा का एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त करने का नाम संसार है। जब तक आत्मा के साथ कर्म है तब
चार पतियों का पाम संसार है। तक उसे संसार में परिभ्रमण करना पडता है। शुभाशुभ कर्मों के अनुसार नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार गतियों में व्याप्त इस संसार में परिभ्रमण करता हुआ जीव नाना प्रकार के दुःखों को भोगता है।
तिर्यंचगति में क्षुधा, तृष्णा, मारना, पीटना आदि की पीडा एवं नरक गति में क्षेत्र जन्य, परमाधामी देवों द्वारा एवं परस्परकृत वेदनाएं सहनी पडती है। मनुष्यगति में जन्म, जरा मृत्यु की वेदना से गुजरना पडता है और देवगति में अल्पता, अधिकता के कारण ईर्ष्या, दुःख द्वेष की आग में जीव झुलसता है। एक भी गति में पूर्णतया सुख नहीं है। कहा जाता है :
संसार महादुःख सागर है, प्रभु दुःख मय सुख आभासों में,
मुझको न मिला सुख क्षणभर भी, कंचन कामिनी प्रासादों में।। क्षण भर के लिए भी संसार में सच्चा सुख नहीं है मात्र सुखाभास है अर्थात् सुख का भ्रम है। संसार तो यह दुःखों का सागर है।
अबोध बालक थावच्चापुत्र ने संसारानुप्रेक्षा की थी। एक दिन थावच्चापुत्र ने पडोस में गाये जाने वाले मन - भावन मधुर गीतों को सुनकर मां से पूछा :- माँ ! ये गीत क्यों गाये जा रहे हैं ? माँ ने बताया :"वत्स! आज पडोसी के यहाँ पुत्र का जन्म हुआ है और उसकी खुशी में ये मंगल - गीत गाये जा रहे हैं।' कुछ समय बाद मंगल मधुर गीत के बदले करुण विलाप के रुदन के स्वर सुनकर थावच्चापुत्र ने मां से पूछा :
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