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________________ N * बारह अनुप्रेक्षा/भावना * जीवन - निर्माण का सामर्थ्य विचारों में है। सुविचारों की संपदा ने ही भगवान महावीर जैसे महापुरुष बनाये और कुविचारों ने कंस, गोशालक, कोणिक आदि अधोगामी मनुष्य बनाये। जो विचार अंतरिक्ष में देर तक गूंजते हैं वे अपना प्रभाव वहां छोड जाते है। उसका कंपन काफी समय तक वातावरण में बना रहता है। सुविचारों का बार - बार चिंतन / अनुप्रेक्षन करने से वे सुविचार कर्ता के मानस पर गहरी छाप छोड जाते हैं। जैन - कर्म विज्ञान की भाषा में इन्हें भावना या अनुप्रेक्षा कहा जाता है। अनुप्रेक्षा जैन दर्शन का परिभाषिक शब्द है। प्रेक्षा का अर्थ होता है प्रकर्ष रुप से देखना अर्थात् एकाग्र और स्थित होकर किसी तत्व या तथ्य को सुक्ष्मता से देखना। अनुपसर्ग प्रेक्षा से पूर्व लगने से इसका अर्थ होता है, आगमों या धर्मग्रंथों में पढे हुए तथ्य तथा सत्य का अनुचिंतन करना। चित्त को स्थिर करने के लिए किसी तत्व पर पुनः पुनः चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। इसे एक प्रकार से ज्ञान की जुगाली कहा जा सकता है। जैसे गाय, पशु आदि खाने के बाद एकान्त स्थान में बैठकर जुगाली करते हैं, वैसे ही सीखे हुए ज्ञान को अनप्रेक्षाओं द्वारा हृदयगम किया जा सकता है। बार बार चिंतन मनन से वह दढ हो जाता है. अंतर चेतना में ता है। कभी विस्मत नहीं होता। "उत्तराध्ययन सत्र" में भगवान महावीर स्वामी ने अनप्रेक्षा का आध्यात्मिक लाभ बताते हुए कहा है अनुप्रेक्षा से आत्मा आयुष्य कर्म के अलावा शेष सात कर्मों की प्रगाढ प्रकृतियों को शिथिल कर लेती है। दीर्घकालिन स्थिति को अल्पकालीन कर लेती है, तीव्र रस को मंद रस कर लेती है, बहू प्रदेशों को अल्प प्रदेशों में बदल देती है, आसातावेदनीय कर्म का बार बार बंध नहीं करती तथा संसार को शीघ्रता से पार कर लेती है। इसलिए भावना को भव नाशिनी कहा गया है। अनुप्रेक्षा का दूसरा नाम भावना भी है। मोक्षमार्ग के प्रति भाव की वृद्धि हो ऐसा चिंतन करना भावना है। इसी कारण जैन दर्शन में मुमुक्षु के लिए संवर निर्जरा रुप बारह आध्यात्मिक भावनाओं से भावित होने का निर्देश दिया है। वे इस प्रकार है :1. अनित्य 2. अशरण 3. संसार 4. एकत्व 5. अन्यत्व 6. अशुचित्व 7. आश्रव 8. संवर 9. निर्जरा 10. लोकस्वभाव 11. बोधि दुर्लभ और 12. धर्म 1. अनित्य भावना :- संसार के सभी पौद्गलिक पदार्थ अनित्य है। संसार की कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है। यहां की सभी वस्तुएं नश्वर है, परिवर्तनशील है, उत्पन्न होते है, और नष्ट हो जाते हैं। यह शरीर इन्द्रियाँ, यौवन, आरोग्य, धन - समृद्धि, पद - प्रतिष्ठा, विषय - सुख और जीवन सब कुछ अनित्य है। जगत् में सभी पदार्थ कालक्रम में परिवर्तित होते रहते हैं। संसार का जो स्वरुप प्रातःकाल था वह मध्याह्न काल में नहीं रहता है और जो मध्याह्न काल में रहता है वह अपराह्नकाल (सायं) में नहीं रहता है। सभी संबंध या संयोग वियोग जनित है। आत्मा के अलावा इस संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं है। इस प्रकार का बार - बार चिंतन करना अनित्य भावना है। चिलाहाकुल जीवन एवं पन अंजलीजलके समान अस्थिर है। Hotstarteddeduourtnertisticita For persona te 131 se Only www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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