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________________ 8. उत्तम त्याग :- पात्र को ज्ञानादि सद्गुण प्रदान करने को उत्तम त्याग कहते हैं। ठाणांग सूत्र में चार प्रकार का त्याग बताया है। 1. मणाचियाए :- मन के विकारों का त्याग करना। 2. वयचियाए :- वचन से अशुभ तथा अप्रीतिकर शब्दों का त्याग करना। 3. कायचियाए :- काया से अनैतिक और अशुद्ध क्रियाओं का त्याग करना। 4. उवगरणचियाए :- उपकरणों का त्याग करना। 9. उत्तम आंकिचन्य :- बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करके आत्म - भावों में रमण करना आंकिचन्य धर्म है। 'अ' अर्थात् नहीं, किंचन - कोई भी। किसी भी प्रकार का परिग्रह या ममत्व न रखना। वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं होती उसकेग्रहण का भाव, संग्रह की इच्छा और उस पर ममत्व आदि रखना परिग्रह है। यदि पर - पदार्थकेग्रहण या संग्रह की भावना और उस पर ममता नहीं है तोपर - पदार्थकी उपस्थिति परिग्रह नहीं है। आकिंचन्य धर्मवाले मुनि उपलक्षण से शरीर, धर्मोपकरण आदि के प्रति या सांसारिक पदार्थों के प्रति निर्ममत्व होते हैं। वे निष्परिग्रही होकर अपने लिए आहार पानी आदि संयम जीवन निर्वाह केलिए ही लेते हैं। जैसेगाडी केपहियेकी गति ठीकरखने केलिए उसकी धुरी में तेल डाला जाता है, वैसे ही शरीर रुपी गाडी की गति ठीक रखने के लिए वे मूर्छारहित होकर आहार पानी लेते हैं। रजोहरण और वस्त्रपात्रादि अन्य उपकरण भी संयम एवं शरीर की रक्षा के लिए धारण करते हैं। यही परिग्रह त्याग रुप आकिंचन्य का रहस्य है। 10. उत्तम ब्रह्मचर्य :- आध्यात्मिक दष्टि से ब्रह्मचर्य का अर्थ इस प्रकार किया गया है - ब्रह्म अर्थात आत्मा और चर्य अर्थात् चलना। आत्मा में विचरण करना ब्रह्मचर्य हैं। व्यवहारिक दृष्टि से नववाड सहित मन - वचन - काया से मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्य धर्म है। वाड से जैसे क्षेत्र का रक्षण होता है, उसी प्रकार नववाड से ब्रह्मचर्य का रक्षण होता है। उसके नौ प्रकार है। 1. संसक्त वसतित्याग :- जहां पर स्त्री / पुरुष / पशु व नपुंसक रहते हो उस स्थान का त्याग करना। 2. स्त्रीकथा त्याग :- स्त्री / पुरुष के रुप, लावण्य की चर्चा न करना। 3. निषधा त्याग :- जिस स्थान या आसन पर स्त्री, पुरुष बैठे हो उस पर 48 मिनिट तक नहीं बैठना। 4. अंगोपांग निरीक्षण त्याग :- स्त्री / पुरुष के अंगोपांग रागात्मक दृष्टि से न देखना। 5. संलग्न दीवार त्याग :- संलग्न दीवार में जहां दंपत्ति रहते हो ऐसे स्थान का त्याग करना। 6. पूर्वक्रीडित भोगों का विस्मरण :- पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को याद न करना। 7. प्रणीत आहार त्याग :- गरिष्ट एवं विकारजनक आहार न करना। 8. अति आहार त्याग :- प्रमाण से अधिक भोजन न करना। 9. विभूषा त्याग :- स्नान, इत्र, तेल आदि से मालिश आदि शरीर की शोभा बढानेवाली प्रवृत्तियों का त्याग करना। उपयुक्त दस प्रकार केधर्मउत्तम धर्मकहलानेयोग्य तभी होते हैं जब वे आत्मशुद्धिकारक और पाप निवारकहो। SEARRASS HAMARREARRIORAIIIIIIIIIIIANS RRRRRRRRRRRRR titvaliditatonary 1301 www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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