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________________ * समिति :- श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञानुसार यतनापूर्वक सम्यक् प्रवृत्ति करना । संसार का प्रत्येक प्राणी कुछ न कुछ प्रवृत्ति अवश्य करता है। प्रवृत्ति के अभाव से वह न जी सकता है और न व्यवहार कर सकता है। जब तक शरीर का त्याग नहीं होता तब तक जीवन व्यतीत करने के लिए कुछ न कुछ बोलना, खाना, पीना, उठना - बैठना आदि क्रियाएं करनी पडती है। इसलिए दशवैकालिक सूत्र में शिष्य ने से प्रश्न किया है। गुरु कहं चरे, कहं चिट्ठे, कह मासे, कहं सए । कहं भुंजतो भांसतो, पावं कम्मं न बंधइ ? " गुरुदेव ! मैं कैसे चलूं, कैसे खड़ा रहूं, कैसे बैठूं, कैसे सोऊं, कैसे खाउं, कैसे बोलुं, जिससे पाप कर्मों का बंध न हो।" गुरुदेव ने फरमाया है : "जयं चरे, जयं चिट्ठे, जयमासे, जयं सए । जयं भुजंतो भासतो, पावं कम्मं न बंधइ ।।" यतना से चलो, यतना से खडे रहो, यतना ये बैठो, यतना से सोओ, यतना से खाओ, यतना से बोलो, जिससे पाप कर्मों का बन्ध न हो। " अतः यतनापूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है। समिति के पांच प्रकार है। 1. इर्या समिति 2. भाषा समिति 3. एषणा समिति 4. आदान भंडमत निक्षेपणा समिति 5. परिष्ठापनिका समिति 1. इर्या समिति :- इर्या यानी गमन के विषय में सम्यग् प्रवृत्ति करना अर्थात् शान्त चित्त से चलना, गमनागमन में विवेक रखना, भूत भविष्य की स्मृति - कल्पनाओं में न डूबकर वर्तमान क्षण में उपयोग रखना, इर्या समिति है। द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से यह चार प्रकार की है। * द्रव्य :- सूर्य - प्रकाश और नेत्र प्रकाश से भली भांति देखते हुए नीची दृष्टि रखकर चलना । * क्षेत्र :- लगभग साढे तीन हाथ आगे की भूमि देखकर चलना । * काल :- रात्रि में अनिवार्य कारणवश चलना पडे तो प्रमार्जन किए बिना न चलना । * भाव :- उपयोगपूर्वक चलना 2. भाषा समिति निर्दोष वचन (मुहपत्ती का उपयोग रखकर ) बोलना सावध वचनों का त्याग करते हुए सर्वजन हितकारी और परिमित वचनों का बोलना भाषा समिति है। जो वचन मधुर हो, परिमित हो, प्रयोजन होने पर ही बोले गये हो, जो गर्व रहित हो, तुच्छ न हो, बुद्धि से विचार कर बोले गये हो और जो धर्ममय हो, ऐसे वचनों को बोलना भाषा समिति है । - - : - Samiti - 3. एषणा समिति :- स्वादलोलुपता, रसपोषण को महत्व न देकर, आहार पानी में बयालीस दोषों को त्यागकर निर्दोष पदार्थ स्वीकार करना एषणा समिति है। 4. आदान भंडमत निक्षेपणा समिति :- अर्थात् आदान ग्रहण करना :- भंडमल अर्थात् पात्र आदि को जयणापूर्वक निक्षेपणा करना यानी वस्तु उठाने में, रखने में जीव मैत्री का भाव रखकर विवेकमय प्रवृत्ति करना। अर्थात् वस्त्र, पात्र, आसन, शय्या आदि संयम के उपकरण तथा ज्ञानोपकरणों को उपयोगपूर्वक प्रमार्जना करके उठाना और रखना आदान भंड मत निक्षेपणा समिति है। 26 ******** www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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