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1. सम्यक्त्व :- विपरीत मान्यता से मुक्त होना अथवा मिथ्यात्व का अभाव। 2. व्रत या विरति :- अठारह प्रकार के पापों का सर्वथा त्याग करना। 3. अप्रमाद :- धर्म के प्रति पूर्ण उत्साह होना। 4. अकषाय :- क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों का नष्ट होना। 5. अयोग :- मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्तियों को रोकना।
* संवर के बीस भेद :1-5 :- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय, अयोग। 6-10 :- हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से निवृत्ति लेना। 11-15 :- श्रोत, चक्षु, घ्राण, रस, स्पर्शन आदि पांच इन्द्रिय का निग्रह करना। 16-18 :- मन, वचन और काया को संयम में रखना। 19 :- भांडोपकरण :- वस्त्र - पात्र आदि उपकरण जयणा से रखना। 20 :- सुसंग - कुसंगति से दूर रहना।
इस प्रकार संवर के बीस भेद भी होते हैं। तत्वार्थ सूत्र में संवर के सतावन भेद माने गये हैं जो निम्नलिखित है। 1. तीन गुप्ति 2. पांच समिति 3. दस यति धर्म 4. बारह भावना / अनुप्रेक्षा 5. बाईस परीषह और 6. पांच चारित्र * गुप्ति :- “संसार कारणात् आत्मन गोपनं गुप्ति' संसार के कारणों से आत्मा की जो सुरक्षा करे - वह गुप्ति है। मन - वचन तथा काया को हिंसादि सर्व अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत करना, सम्यक् प्रकार से उपयोग पूर्वक प्रवृति करना गुप्ति है। गुप्ति के तीन प्रकार है:1. मनोगुप्ति :- अशुभ विचारों का त्याग करना और शुभ विचारों को धारण करना मनोगुप्ति है। 2. वचनगुप्ति :- असत्य भाषण से निवृत्त होना और मौन धारण करना वचन गुप्ति है। आचारंग सूत्र में इसके दो रुप मिलते हैं।
* भगवान ने जैसे कहा है तदनुसार प्ररुपणा करना अर्थात् शास्त्र मर्यादा के अनुसार बोलना और
* वाणी - विषयक मौन साधना अर्थात् शास्त्रानुसार निर्दोष वचन का प्रयोग करना और सर्वथा मौन धारण करना भी वचनगुप्ति है।
Gupti 3. कायगुप्ति :- बिना कारण काया की चंचलता का त्याग करके काया को संयम में रखना अर्थात् सोना, बैठना, उठना, पैर फैलाना आदि आवश्यक कायिक क्रिया की चंचलता पर तथा अनावश्यक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना एवं मर्यादा अनुसार शरीर की चेष्टा को संयमित करना। उपसर्ग आदि प्रतिकूल प्रसंगों में सर्वथा स्थिर होकर शरीर की चेष्टा का त्याग करके कायोत्सर्ग करना भी कायगुप्ति है। जैसे गजसुकुमाल मुनि ने की।
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