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* संवर तत्व * अनादि काल से जीव कर्मवश बनकर संसार - सागर में परिभ्रमण कर रहा है। जीव कभी कर्म का क्षय करता है तो कभी कर्मों का बंध करता है। परंतु क्षय और बंध की प्रक्रिया से ही आत्मा का भवपार नहीं हो सकता। आश्रव के कारण नये कर्मों का बंध होता रहता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये कर्म बंध के कारण है। इनसे कर्मों का आगमन कैसे होता है, आत्म परिणामों की स्थिति कैसे होती है, मिथ्यात्व के कारण आत्मा को संसार में कैसे परिभ्रमण करना पडता है आदि का वर्णन आश्रव तत्व द्वारा होता है।
____ आत्मा कर्मावृत बनकर संसार में परिभ्रमण करता रहता है, फिर भी आत्म - विकास की शक्ति उसमें छिपी रहती है। अंधेरे से प्रकाश की ओर और अज्ञान से ज्ञान की ओर जाने के लिए जीव के प्रयत्न चलते रहते हैं। इस प्रकार के प्रयत्न करना ही संवर मार्ग पर चलना है। * आश्रव को रोकना तथा कर्म को न आने देना संवर है। संवर आश्रव का प्रतिपक्षी है। आश्रव - तत्व में आत्मा के पतन की अवस्था दिखायी गयी है और संवर में आत्मा के उत्थान की अवस्था दिखाई गयी है। आश्रव का मार्ग संसारलक्षी है तो संवर का मार्ग मोक्ष लक्षी है। संवर पथ के अपनाने से साधकों का केवल भविष्य ही उज्जवल नहीं बनता अपितु वे मोक्ष पद को भी प्राप्त कर लेते हैं।
* संवर की परिभाषा :- संवर शब्द सम् तथा वृ से मिलकर बना है। सम् उपसर्ग है और वृ धातु है। वृ का अर्थ है रोकना या निरोध करना। तत्वार्थ सूत्र में कहा है 'आश्रव निरोध संवर' आश्रव का निरोध संवर है। 'संवृणोति कर्म अनेनेति संवर' अर्थात् जिसके द्वारा आनेवाले नवीन कर्म रुक जाए वह संवर है।
कल्पना कीजिए - एक व्यक्ति किसी तालाब को खाली करने के लिए उसका पानी उलीच उलीच कर बाहर फेंक रहा है। दिन रात अत्यधिक परिश्रम करता है। वह एक ओर से पानी निकाल रहा है दूसरी ओर से नाली से पानी अंदर आ रहा है। इस प्रकार दिन - रात परिश्रम से जितना तालाब खाली होता है उसके बराबर या उससे अधिक पानी तालाब में भरता भी जा रहा है। इस स्थिति में कितना भी प्रयत्न या परिश्रम किया जाय किंतु तालाब खाली होने की संभावना नहीं है। जब नालों को बंद करके पानी उलीचा जाएगा, तभी तालाब खाली हो सकेगा।
प्रस्तुत रुपक संवर के लिए समझना चाहिए ! आत्मा एक तालाब के समान हैं उसमें कर्म रुपी पानी भरा हैं आश्रव रुप नालों से उसमें दिन रात कर्म रुप पानी भरता ही रहता है। साधक तप आदि साधनों के द्वारा कर्म रुपी जल को उलीच उलीच कर निकालने का प्रयास करता है। किंतु जब तक कर्मों के आने के द्वार को बंद नहीं करता तब तक कर्म जल से आत्म - सरोवर खाली नहीं हो सकता। उन नालों को बंद करना ही संवर तत्व है। * संवर के प्रकार :जैन दर्शन में संवर के दो भेद हैं :___1. द्रव्य संवर
2. भाव संवर 1. द्रव्य संग्रह में कहा गया है - आते हुए नवीन कर्मों को रोकनेवाले आत्मा के परिणाम अथवा आत्मा की अकषाय अवस्था या आत्मा का शुद्धोपयोग भाव संवर है एवं उससे रुकनेवाले कर्मपुद्गल द्रव्य संवर है।
संवर की संख्या की अनेक परंपराएं प्राप्त है - मुख्य रुप से संवर के पांच भेद है :
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