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5. परिष्ठापनिका समिति :- परिष्ठापनिका समिति को उत्सर्ग समिति भी कहते हैं। इसका पूरा नाम उच्चार प्रश्रवण खेल सिंघाण जल्ल परिष्ठापनिका समिति है। इसका अर्थ है उच्चार अर्थात् मल, श्रवण यानी मूत्र, खेल यानी थूक या कफ सिंघाण यानी नाक का मैल और जल्ल यानी पसीना । मल मूत्र श्लेश्मादि निस्सार तत्व फेंकते समय जीव हिंसा न हो ऐसा ध्यान रखकर क्रिया करना परिष्ठापनिका समिति है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसके चार भेद है :
* द्रव्य ः- त्यागने योग्य वस्तुओं को ऐसी ऊंची जगह न परठे जहां से नीचे गिरे या बहे। ऐसी नीची जगह में भी न परठे जहां एकत्र होकर रह जाय। ऐसी अप्रकाशित जगह में भी न परठे जहां जीव जंतु दिखाई न दे। ऐसी जगह भी न डालें जहां चींटियों आदि के बिल हो, अनाज के दाने हो, अन्य जीव जंतु हो । * क्षेत्र
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• जिसकी जगह हो, उस स्वामी की आज्ञा लेकर परठे, यदि वे न हो तो शक्रेन्द्र की आज्ञा लेकर परठे। * काल :- दिन में अच्छी तरह देखभाल कर निरवध भूमि में परठे और रात्री के समय, पहले दिन में देखी हुई भूमि पर प्रमार्जन कर परठे।
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* भाव से शुद्ध उपयोगपूर्वक यतना से परठे ! परठने के लिए जाते समय आवस्सहि (आवश्यक कार्यवश जाता हूं) शब्द का तीन बार उच्चारण करें। परठते समय “अणुजाणह जस्सुग्गहो” बोले । परठने के बाद वोसिरामी (इस वस्तु से अब मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।) शब्द को तीन बार बोलें। परठकर जब अपने स्थान पर लौटे तब निस्सहीं (कार्य में निवृत हुआ हूँ) शब्द तीन बार उच्चारण करें।
समिती = विवेक पूर्वक आचरण
* इर्या :- जयणापूर्वक चलना
* भाषा :- हित - मित, प्रिय, सत्य और संदेह रहित वचन बोलना
* एषणा :- निर्दोष आहार लेना
कर लेना व रखना
* आदान :- उपकरणों को देख-भाल * परिष्ठा :- जन्तुरहित स्थान पर मल
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मूत्र आदि का त्याग करना। * दशयति धर्म
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धर्म जीवन का अमृत है। यदि धर्म मनुष्य के जीवन में न हो तो कर्मों का निरोध या क्षय नहीं किया जा सकता। यही कारण है भारतीय ऋषि मुनियों ने धर्म को जीवन का प्राण कहा है जो संजीवनी बूटी की भांति है। धर्म ही एक ऐसा तत्व है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं को सुलझा सकता है। परिवार में ही नहीं विश्व के हर क्षेत्र में धर्म शांति, सुरक्षा और सौहार्द्र स्थापित कर सकता है। जब उसके शुद्ध स्वरुप को समझा जाय और तदनुसार श्रद्धापूर्वक उसका आचरण किया जाय । तत्वार्थ सूत्र में धर्म के दस प्रकार बताया है।
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“उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः”
1. उत्तम क्षमा 2. उत्तम मार्दव 3. उत्तम आर्जव 4. उत्तम शौच 5. उत्तम सत्य 6. उत्तम संयम 7. उत्तम तप 8. उत्तम त्याग 9. उत्तम अकिंचन्य और 10. उत्तम ब्रह्मचर्य। ये दशविध उत्तम धर्म संवर निर्जरा रुप है।
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