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की भेंट सजाकर लाते, परंतु ऋषभदेव के लिए यह सब ऊग्राय था। वे मौन भाव से वापस वन लौट जाते। इस प्रकार शुद्ध भिक्षा के अभाव में एक वर्ष से अधिक समय तक निर्जल निराहार तप करते रहे। इस बीच जो चार हजार व्यक्ति उनके साथ मुनि बने थे, पूछते - " स्वामी ! हमें भूख लगी है, प्यास सता रही है, हम क्या करें ? क्या खायें ? क्या पीयें ? " परंतु भगवान ऋषभदेव कठोर मौन धारण किये रहते । भूख-प्यास से व्याकुल होकर उनमें से अनेक मुनियों ने झरनों, नदियों का पानी पीना चालू कर दिया। कंदमूल, फल खाकर समय बिताया। कुछ जंगलों में जाकर तापस / परिव्राजक बन गये ।
अब श्री ऋषभदेव स्वामी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं, मगर पूर्वभव में बैलों के मुख पर छींकी बंधाने के कारण अन्तराय कर्म के उदय से शुद्ध भिक्षा कहीं नहीं मिली। भगवान ऋषभदेव विहार करते करते एक बार हस्तिनापुर नगर की ओर पधारे। हस्तिनापुर में उस समय बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ राजा राज्य करते थे। उसका पुत्र था श्रेयांसकुमार। उस रात श्रेयांसकुमार ने एक विचित्र स्वप्न देखा स्वर्ण के समान चमकनेवाला मेरु पर्वत काला पड गया है और मैं दूध के कलश से उसका अभिषेक कर उसे पुनः उज्जवल बना रहा हूँ।
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प्रातः काल श्रेयांसकुमार ने अपने पिता महाराज सोमप्रभ से इस विचित्र स्वप्न की चर्चा की। राजा ने भी ऐसा ही कुछ स्वप्न देखा और उसकी चर्चा की। परंतु उस शुभ स्वप्न का सूचक रहस्य कोई नहीं समझ सका । तब श्रेयांसकुमार अपने महल के झरोखें में बैठकर स्वप्न के रहस्य पर विचार करने लगे। उसी समय भगवान ऋषभदेव हस्तिनापुर नगर में पधारे। भगवान का आगमन सुनकर सैंकडों हजारों लोग उनके दर्शनार्थ उमड पडे। लोग भिन्न -
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भिन्न प्रकार के उपहार सजाकर लाने लगे। परंतु प्रभु ऋषभदेव ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया। वे सीधे राजमहल की ओर बढते चले आ रहे थे। अचानक श्रेयांसकुमार ने भगवान ऋषभदेव को राजमहल की ओर पधारते देखा, वह अपलक दृष्टि से देखता ही रह गया। गहन और एकाग्र भावपूर्वक देखने से उसे जाति स्मरण ज्ञान हुआ। पिछले जन्म चित्रपट की भांती स्मृतियों में झलकने लगे। उसने तत्काल समझ लिया भगवान ऋषभदेव एक वर्ष से ज्यादा भिक्षा के लिए निराहार विचर रहे हैं और मुनि मर्यादा के अनुकूल शुद्ध भिक्षा देने का किसी को ज्ञान नहीं
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है" वह शीघ्र ही राजमहल से नीचे उतरा। भगवान को भक्तिपूर्वक वंदना की। प्रार्थना की प्रभो ! पधारिए आज ही मेरे आंगन में ताजे इक्षुरस के 108 कलश आये हैं, वे पूर्ण शुद्ध है, आपके अनुकूल है कृपा कर इक्षुरस ग्रहण कीजिए।
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प्रभु ऋषभदेव ने अपने दोनों हाथों का अंजलिपुट बनाकर इक्षुरस ग्रहण किया। अत्यंत भक्तिभावपूर्वक श्रेयांसकुमार ने इक्षुरस दान कर भगवान को वर्षीतप (एक वर्ष 40 दिन लगभग) का पारणा कराकर महान धर्मलाभ प्राप्त किया। देवताओं ने आकाश में “ अहोदानं ! अहोदानं !" की घोषणा कर हर्ष ध्वनियाँ की। रत्नों, पंचवर्णी पुष्पों तथा सुगंधित जल आदि की वृष्टि कर आनंद मनाया। संसार में धर्म - दान की प्रवृत्ति का शुभारंभ हुआ। इस पुनीत स्मृति में यह वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन "अक्षय तृतीया " के नाम से पर्व के
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